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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार
२५७ एतदाकाण्यं तेनैव गत्वा तत्सन्निधौ पुनः । कृत्वा तस्मै नमस्कारं वृत्तान्तं कथितं स्वयम् ॥५० तच्छ त्वा विक्रियाऋद्धिः कि जाता मम साम्प्रतम् । तत्परीक्षार्थमप्याशु तेन हस्तः प्रसारितः ॥५१ सोऽपि भित्वा गिरि दूरं गतो निश्चित्य तां पुनः । आगत्य पद्मराजस्य समीपे भणितं स्वयम् ॥५२ मुनीनामुपसर्गो हि किं त्वया कारितो व्यथा । भवत्कुले न संजातः सदृशस्तव दुर्मते ॥५३ तेनोक्तं भवन्नद्य किं करोमि मयाऽशुभात् । पूर्व दत्तो वरो ह्यस्य पापिष्ठस्य विरूपकः ॥५४ ततो विष्णुकुमारेण द्विजरूपं विधाय वै । वामनरूपसंयुक्तं मुनिना बलिसन्निधौ ॥५५ . दिव्येन ध्वनिना गत्वा कृतं सत्प्रार्थनं शुभम् । कि ते ददामि तेनोक्तं यदिष्टं तच्च प्रार्थय ॥५६ तेनोक्तं देहि मे पादत्रयं भूमेरुवाच सः । अन्यबहुतरं दानं विप्र गृहिल याचयः ॥५७ तदेवं याचते सोऽपि भण्यमानो मुहर्मुहुः । लोकैरनेकधा लोभाविष्टः संतोषतत्परः ॥५८ ततो हि बलिना दत्तं भूमिपादत्रयं स्वयम् । हस्तोदकादिविधिना दानं तस्मै शुभप्रदम् ॥५९ दत्तोऽनु मुनिना चैकपादो मेरुगिरी पुनः । द्वितीयो विक्रियायोगान्मानुषोत्तरपर्वते ॥६० पादेन तृतीयेनापि कृत्वा क्षोभं बलाच्च सः । खे देवविमानादीनां वत्तः पृष्ठे बलेरपि ॥६१ ततस्ते मन्त्रिणः पद्मभयादागत्य तत्क्षणम् । मुविष्णुकुमारस्य मुनीनां शरणं गताः ॥६२
उत्तरमें आचार्य ने कहा कि धरणिभूषण पर्वतपर विक्रिया ऋद्धिको धारण करनेवाले विष्णुकुमार मुनिराज विराजमान हैं । वे इस उपद्रवको दूर कर सकते हैं ।।४९।। यह सुनते ही वह विद्याधर स्वयं मुनिराज विष्णुकुमारके समीप गया और नमस्कार कर उसने सब वृत्तांत कहा ॥५०॥ विद्याधरकी यह बात सुनकर उन्हें आश्चर्य हुआ और मुझे विक्रिया ऋति प्राप्त हुई है इसकी परीक्षा करनेके लिये उन्होंने अपना हाथ फैला दिया ॥५१॥ उनका वह हाथ पर्वतको भेदकर दूर तक चला गया तब उन्हें अपनी विक्रिया ऋद्धिका निश्चय हो गया और फिर वे स्वयं राजा पद्मके समीप आकर कहने लगे कि तूने यह व्यर्थ ही मुनियोंका उपसर्ग क्यों किया है, तेरे कुलमें और कोई भी ऐसा दुर्बुद्धि नहीं हुआ है ! ॥५२-५३।। तब पद्मने कहा कि हे भगवन् ! आज मैं क्या करूं! में अपने अशुभ कर्मके उदयसे इस पापीको एक वचन दे चुका हूँ-अर्थात् वरमें सात दिनका राज्य दे चुका हूँ ।।५४।। तब विष्णुकुमारने वामन रूप ब्राह्मणका भेष बनाया और दिव्य वेद ध्वनि करते हए बलिके समीप पहुँचे ॥५५॥ तब बलिने प्रार्थना कर कहा कि महाराज आपको क्या दें, आपको जो इच्छा हो वही आप मांग लें ॥५६॥ तब विष्णुकुमारने कहा कि मुझे तीन पेड पृथ्वी दे दीजिये । तब बलिने कहा कि हे ब्राह्मण ! यह क्या माँगा और भी घर आदि बहुतसी चीजें माँगो ।।५७॥ और अधिक माँगनेके लिये बलिने बारबार कहा तथा और भी अनेक लोभी पुरुषोंने अधिक माँगनेके लिये कहा, परन्तु सन्तोषको धारण करनेवाले विष्णुकुमार अपनी उसी मांगपर डटे रहे ॥५८|| तब बलिने हाथपर पानीको धारा छोड़कर विष्णुकुमारके लिये कल्याण करनेवाला तीन पेंड पृथ्वीका दान दे दिया ।।५९।। मुनिराजने दान लेकर पृथ्वी नापनी प्रारम्भ की। उन्होंने विक्रिया ऋद्धिसे अपना शरीर बढ़ाकर एक पैर तो मेरु पर्वतपर रक्खा, दूसरा मानुषोत्तर पर्वतपर रक्खा, अब तीसरा पैर रखनेके लिये कहीं स्थान न रहा । उनके इस कृत्यसे समस्त संसारमें क्षोभ हो गया और देवोंके विमानोंमें भी क्षोभ हो गया तब लाचार होकर उन्होंने अपना तीसरा पैर बलिकी पीठ पर रक्खा ॥६०-६१।। तब वे सब मंत्री महाराज पद्मके भयसे घबड़ाये । वे सब उसी समय मुनिराज विष्णुकुमारके तथा उन सातसो मुनियोंके शरणमें जा
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