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________________ २५२ श्रावकाचार-संग्रह उपविश्य ततः प्रोक्तं मुनिना मातरं प्रति । ममान्तःपुरमेवात्र प्रानय त्वं सुवेगतः ॥६३ ततः सुदेव्यो द्वात्रिंशद्वस्त्राभरणभूषिताः । हावभावविलासाढ्या आनीता मुनिसन्निधौ ॥६४ भणितं वारिषेणेन पुष्पडालं प्रति स्वयम् । इमाः स्त्रियो गृहाण त्वं यौवराज्यं पदं च मे ॥६५ तच्छु त्वा पुष्पडालोऽभुल्लज्जाकुलितमानसः । वैराग्यं परमं गत्वा स्वस्य निन्दा करोत्यसौ ॥६६ घन्योऽयं येन सन्त्यक्ता राज्यश्री सुभगास्त्रियः । धिङ्मा रागान्वितं मूढं त्यक्तभार्यादिचित्तकम् ॥६७ पुष्पडालोऽतिसंवेगात्कृत्वा तीवं तपोऽनघम् । स्वर्गऋद्धयादिकं प्राप्य क्रमान्मोक्षं प्रयास्यति ॥६८ वारिषेणो मुनीन्द्रस्तु रत्नत्रयविभूषितः । कृत्वा तपो द्विषड्भेदं स्वर्गऋद्धयादिकं व्रजेत् ॥६९ निरुपमगुणयुक्तस्त्यक्तशङ्कादिदोषो, विसृतगुणगरिष्ठो दर्शनस्यैव नित्यम् । कृतसकलतपो यो ज्ञानविज्ञानदक्षो, दिशतु शिवसुखं नो वारिषेणो मुनीन्द्रः ॥७० इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे उपगहनस्थितिकरणप्ररूपणो जिनेन्द्रभक्त-वारिषेणकथाप्ररूपणो नाम अष्टमः परिच्छेदः ॥८॥ दूर करनेके लिये और अपने पुत्रकी परीक्षा करनेके लिये उसने उन मुनियोंके लिये दो प्रकाराके आसन डलवाए । एक स्थानपर सुवर्ण चांदीके रागरूप और दूसरे स्थानपर वीतराग काठके ॥६२। वे मुनिराज वीतराग आसनपर विराजमान हो गये और फिर उन्होंने अपनी मातासे कहा किहे माता ! शीघ्र ही मेरे सामने मेरी सब स्त्रियोंको बुलाओ ।।६३।। रानी चेलनाने वस्त्र और आभूषणोंसे सुशोभित तथा हावभाव विलास आदि गुणोंसे शोभायमान उनकी बत्तीसों सुन्दर स्त्रियां बुलाकर उनके सामने खड़ी कर दीं ॥६४॥ तब मुनिराज वारिषेणने पुष्पडालसे कहा कि - यदि अब भी तेरी लालसा नहीं मिटी है तो इन स्त्रियोंको और मेरे युवराज पदको स्वीकार कर ॥६५॥ मुनिराजकी यह बात सुनकर (और उनको ऐसी परम विभूतिसे भी विरक्त जानकर) पुष्पडाल हृदयमें बहुत ही लज्जित हुआ। उसे उसी समय वैराग्य प्रगट हुआ और वह स्वय अपनी निन्दा करने लगा ॥६६।। वह कहने लगा कि इनको धन्य है जिन्होंने राज्यलक्ष्मी औरम् ऐसी ऐसी सुन्दर स्त्रियां त्याग दी हैं तथा मुझ मूर्खको बारबार धिक्कार है जो त्याग करनेपर भी स्त्रीकी चिन्तामें लगा रहता हूँ॥६७।। तदनन्तर पुष्पडालने परम संवेग धारण किया, निरन्तर तीव्र तपश्चरण किया और अन्तमें स्वर्ग सुख प्राप्त किया । अनुक्रमसे वह मोक्ष प्राप्त करेगा ॥६८।। रत्नत्रयसे विभूषित हुए मुनिराज वारिषेण भी बारह प्रकारका घोर तपश्चरण कर स्वर्गमें महाऋद्धिके धारक देव हुए ॥६९।। जो अनुपम गुणोंसे शोभायमान थे, जिन्होंने शंका आदि सब दोष दूरकर सम्यग्दर्शनके समस्त उत्तम गुणोंको धारण किया था, जिन्होंने बारह प्रकारका तपश्चरण किया था और जो ज्ञान विज्ञानसे विभूषित थे ऐसे वे मुनिराज वारिषेण हम लोगोंको मोक्ष सुख प्रदान करें ॥७०|| इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति विरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचारमें उपग्रहन और स्थितिकरण अंगमें प्रसिद्ध होनेवाले जिनेन्द्रभक्त और वारिषेणकी कथाको कहनेवाला यह आठवां परिच्छेद समाप्त हुआ ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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