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________________ २५१ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार स्वस्य व्याघुटनाथं स क्षीरवृक्षादिकं मुहुः । दर्शयन् वन्दनां कुर्वन् मुहुस्तस्मै मुनीशिने ॥५० मुनिना हस्तमादाय नीतः स बालमित्रतः। कुर्वता बोधनं तस्य परं सद्धमहेतवे ॥५१ गृहवासं महानिन्धं पापबीजं कुदुःखदम् । चिन्तादिशतसम्पूर्ण धनंविघ्नकरं त्यज ॥५२ मित्र गृहाण चारित्रं स्वर्गमुक्तिवशीकरम् । सुखाकरं महापापस्फोटकं दुःखदूरगम् ॥५३ लज्जाप्तमानवैराग्याद् गृहीत्वा संयम परम् । सोमिल्लां स्वचित्तस्थां नैव स विस्मरेत् सदा ॥५४ तौ मुनी द्वादशाब्दैश्च कृत्वा सत्तीर्थवन्दनाम् । वर्द्धमानजिनेन्द्रस्य प्रागतौ सत्सभां शुभात् ॥५५ नमस्कृत्य जिनाधीशमुपविष्टौ निजे गणे । स्वहस्तौ कुड्मलोकृत्य सद्धर्मान्वितचेतसौ ॥५६ पृथिव्यादिसमुद्भूतं गीयमानं सुरैर्वरम् । गीतं सर्वरसाढयं हि पुष्पडालेन संश्रुतम् ॥५७ कुवस्त्रमललिप्तांगा दह्यमाना हृदि त्वया । त्यक्ता शुभा कथं पृथ्वी जीविष्यति महीधरः ॥५८ एतत्स्वस्यापि संयोज्य सोमिल्लायाश्च नष्टधीः । निर्गतो रागसंयुक्तो स्वगेहं मोहितो मुनिः ।।५९ तं ज्ञात्वा वारिषेणेन स्थितीकरणहेतवे । नीतो राजगृहं तस्मात्सम्यग्दर्शनशालिना ॥६० चेलिनी तौ मुनी दृष्ट्वा वारिषेणः किमागतः । चारित्राच्चलितो भूत्वा चेति शङ्का चकार सा॥६ वीतरागसरागौ द्वौ चासनौ दापितो तया। स्वपुत्रस्य परीक्षार्थं स्वयं संविग्नचेतसा ॥६२ मुनिराजके साथ गया ।।४९॥ कुछ दूर जाकर उसे लौटने की पड़ी। अपने लौट जाने की आज्ञा मांगनेके लिये कभी कोई क्षीरवृक्ष दिखाकर स्मरण कराया और कभी उन्हें वन्दना कर स्मरण कराया परन्तु वे मुनिराज कुछ न बोले, चले ही गये । लाचार होकर पुष्पडालको भी जाना पड़ा। अपने स्थानपर जाकर मुनिराजने बाल मित्र होनेके कारण उसका हाथ पकड़कर सद्धम ग्रहण करनेके लिये उसे समझाया और कहा कि ॥५०-५१।। हे मित्र ! यह गृहस्थका निवास अत्यन्त निन्दनीय है, पापका कारण है, अनेक दुःखोंको उत्पन्न करनेवाला है, अनेक चिन्ताओंसे। भरपूर है और धर्मकार्योंमें विघ्न करनेवाला है, इसलिये तू इसे छोड़ और चारित्र धारण कर यह चारित्र ही स्वर्ग मोक्षको वश करनेवाला है, सुखकी खानि है, महापापोंको नाश करनेवाला है और दुःखोंको दूर करनेवाला है ॥५२-५३|| मुनिराजका उपदेश सुनकर पुष्पडालको कुछ लज्जा आई, लज्जासे कुछ अभिमान आया और कुछ वैराग्य प्रगट हुआ इसलिये उसने संयम धारण कर लिया परन्तु वह सोमिला ब्राह्मणीको अपने हृदयसे कभी नहीं भुला सका ॥५४॥ तदनन्तर वे दोनों मुनिराज तीर्थयात्राको निकले। बारह वर्षतक तीर्थयात्रा की और फिर श्री वर्द्धमान स्वामोके समवशरणमें आये ॥५५।। वहाँ आकर उन दोनोंने अपने दोनों हाथ जोड़कर तीर्थकर परमदेवको नमस्कार किया और हृदयमें धर्मकी आराधना करते हुए अपने कोठेमें जा बैठे ॥५६॥ वहाँपर कुछ देव पृथ्वीके विषयमें कुछ रसीले गीत गा रहे थे और उनमेंसे एक गीत यह था "कि हे राजन् ! फटे और मैले वस्त्र पहिने तथा अपने हृदयमें जलती हुई पवित्र पृथ्वी तूने छोड़ दी है इसलिये अब वह किस प्रकार जीवेगी" देवोंका यह गीत पुष्पडालने भी सुना और उसने ज्योंका त्यों अपनी सोमिला ब्राह्मणीपर घटा लिया। बस फिर क्या था वह बुद्धिहीन मुनि मोहमें फंस गया और हृदयमें राग भाव उत्पन्न हो जानेके कारण वहाँसे घरके लिये चल पड़ा ॥५७-५९॥ उसकी यह लीला सम्यग्दृष्टि मुनिराज वारिषेणने भी जान ली और उसको अपने धर्म में स्थिर करनेके लिये वे उसे अपने राजभवनमें ले गये ॥६०॥ रानी चेलना ने उन दोनों मुनिराजोंको आते हुए देखकर विचार किया कि वारिषेण क्यों आया ? क्या वह चारित्रसे चलायमान तो नहीं हो गया ? ऐसी शंका उसके हृदयमें उत्पन्न हुई।॥६॥ उस शंकाको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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