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________________ २४२ श्रावकाचार-संग्रह कथयित्वा कथां स्वस्य प्रशंस्य तं मुहुम हुः । प्रपूज्य वस्त्राभरणः स्वर्गलोकं ययौ सुरः ॥१२ उद्दायनो नृपो भूयस्त्यक्त्वा राज्यादिसंपदः । पार्वे श्रीवर्द्धमानस्य दीक्षामङ्गोचकार सः ॥१३ तपः कृत्वा महाघोरं हत्वा कर्मकदम्बकम् । उत्पाद्य केवलज्ञानं जातो मुक्तिस्वयंवरः ॥१४ प्रभावतो तपः कृत्वा हत्वा स्त्रीलिङ्गमप्यसौ । ब्रह्मस्वर्गे सुरो जातो दिव्याभरणमण्डितः ॥१५ परमसुखनिधिश्चोहायनो लोकपज्यो, विधृतगुणसमग्रो दर्शन्स्यैव योगात् । कृतपरमतपो हि सर्वकर्माणि हत्वा, परमपदमपारं पात्वसौ नो मुनीन्द्रः ॥१६ गुणं निर्विचिकित्साख्यं धृत्वाऽन्ये बहवो गताः । मुक्ति येऽत्र कथां दक्षः कस्तेषां गदितुं क्षमः ॥१७ विख्याता रेवती राज्ञी प्रामूढत्वगुणेऽपि या। कयां तस्याः प्रवक्ष्यामि दर्शनस्यैव हेतवे ॥१८ रूप्याद्रिदक्षिणश्रेण्यां मेघकूटे पुरे खगः । राजा इन्द्रप्रभो जातः पुण्यात्सद्दर्शनान्वितः ॥१९ चन्द्रशेखरपुत्राय दत्वा राज्यं स निर्गतः। भक्त्यर्थ गुरुदेवानां युक्तः कयाचिद्विद्यया ॥२० आगतो दक्षिणाख्यां स मथुरां सत्कृतार्चनः । सूरेः श्रीमुनिगुप्तस्य पार्वेऽभूत् क्षुल्लको बुधः ॥२१ एकदा श्रीगुरुः पृष्ठो बजता तीर्थहेतवे । तेनोत्तरमथुरायां कि कस्य कथ्यते न वा ॥२२ तेनोक्तं पापभीताय सुव्रताय नमोऽस्तु मे। कथनीयो मुनीन्द्राय तारकाय भवार्णवे ॥२३ राज्ञो वरणनाम्नश्च रेवत्याः कथयस्व मे । धर्मवृद्धिमनेकार्थस्वर्गमुक्तिसुखप्रदाम् ॥२४ बनाकर अपनी सब कथा कही, राजाकी बहुत बहुत प्रशंसा की और दिव्य वस्त्राभरणोंसे राजाकी पूजाकर वह देव अपने स्वर्गलोकको चला गया ॥११-१२।। कुछ दिनोंके बाद राजा उद्दायनने भी अपना सब राज्य छोड़कर श्री वर्द्धमान स्वामीके समीप जिनदीक्षा धारण कर ली ।।१३।। उसने महा घोर तपश्चरण किया, सब कर्मसमहोंका नाश किया और केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्तिलक्ष्मीका स्वामी हुआ ॥१४॥ रानी प्रभावतीने भी दीक्षा धारण कर ली और घोर तपश्चरण कर स्त्रीलिंगको छेदकर पाँचवें ब्रह्मस्वर्गमें दिव्य आभरणोंसे सुशोभित देव हई ॥१५॥ जो मनिराज उहायन परम सुखके निधि थे, लोकपूज्य थे, जिन्होंने सम्यग्दर्शन के समस्त गुण धारण किये थे, जिन्होंने घोर तपश्चरण किया और समस्त कर्मोको नष्टकर अपार परमपद-मोक्षपद प्राप्त किया वे उद्दायन मुनिराज हम लोगोंकी रक्षा करें ॥१६।। इस निर्विचिकित्सा गुणको धारण कर और भी बहुतसे जीव मोक्ष पधारे हैं, परन्तु उन सबकी कथा कौन कह सकता है ॥१७॥ सम्यग्दर्शनके चौथे अमूढ़दष्टि अंगमें रेवती रानी प्रसिद्ध हुई है इसलिये सम्यग्दर्शनको निर्मल करनेके लिये उसकी भी कथा कहता हूँ ॥१८॥ विजयार्द्ध पर्वतको दक्षिण श्रेणीमें एक मेघकूट नगर है। पुण्यकर्मके उदयसे वहाँपर सम्यग्दृष्टी राजा चन्द्रप्रभ नामका विद्याधर राज्य करता था ।।१९।। किसी एक समय वह राजा चन्द्रप्रभ अपने पुत्र चन्द्रशेखरको राज्य देकर भक्तिपूर्वक गुरु और देवोंकी वंदना करनेके लिये किसी एक विद्याके साथ चल दिया ॥२०॥ चलते-चलते वह दक्षिण मथुरामें आया । वहाँपर उसे श्रीगुप्ताचार्यके दर्शन हुए । उनको पूजाकर उस बुद्धिमान राजाने उनके ही पास क्षुल्लकको दीक्षा धारण कर ली ॥२१।। किसी एक दिन उस चन्द्रप्रभ क्षुल्लकने अपने गुरु गुप्ताचार्यसे पूछा कि हे स्वामिन् ! मैं तीर्थयात्रा करनेके लिये उत्तर मथुराको जा रहा हूँ, क्या आपको किसीसे कुछ कहना है ? ॥२२॥ उत्तरमें मुनिराजने कहा कि पापोंसे डरनेवाले और संसाररूपी समुद्रसे पार कर देनेवाले मुनिराज सुव्रतके लिये हमारा नमस्कार कहना तथा राजा वरुणकी रानी रेवतीसे स्वर्ग मोक्षकी देनेवाली हमारी अनेक प्रकारसे धर्मवृद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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