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________________ सातवाँ परिच्छेद सुपाश्वं जिनमानम्य वक्ष्ये सद्धर्मदेशकम् । गुणं निर्विचिकित्साख्यं नृपोद्दायनगोचरम् ॥१ सौधर्मेन्द्रः सभामध्ये सम्यक्त्वगुणवर्णनम् । करोति देवसम्पूर्णे भव्यसम्बोधहेतवे ॥२ भरते वंगदेशेऽभूद्रोरुकाख्ये पुरे शुभे । उद्दायनो महाराजः पूर्वपुण्यप्रभावतः ॥३ गुणं निविचिकित्साख्यं त्यक्तदोषं स सेवते । इति प्रशंसयामास शक्रस्त्रिज्ञानसंयुतः ॥४ वासवाख्योऽमरो नाकादागतस्तं परीक्षितुम् । विकृत्यं मुनिरूपं स कुष्टादिगलितं धनम् ॥५ गृहद्वारे स्थितस्तस्य तं विलोक्य स पुण्यधोः । ददौ हि विधिनाऽऽहारं प्रतिगृह्य सुभक्तितः ॥६ सर्वान्नं च जलं सोऽपि भक्षयित्वातिमायया। अतिदुर्गन्धवीभत्सं वमनं कुरुते पुनः ॥७ नष्टः परिजनस्तस्माद् दुर्गन्धादतिदुःस्सहात् । स्थितो राजा प्रभावत्या सहितः सोऽपि पुण्यवान् ॥८ राज्ञः प्रतीच्छतो वान्तं देव्या उपरि छर्दितम् । साक्षालयति हस्तेन राजा तद्वमनादिकम् ॥९ . . हा हा दत्तो मयाऽऽहारोऽयोग्यो रुक्पीडितात्मने । इति निन्दा स्वयं स्वस्य करोति स मुनीशिने ॥१० श्रुत्वा तद्वचनं देवः सानन्दो जातनिश्चयः । मायारूपं परित्यज्य दिव्यरूपं व्यधादसौ ॥११ मैं श्री सुपार्श्वनाथ भगवान्को नमस्कार कर कुछ धर्मोपदेश कहता हूँ और उसमें भी निर्विचिकित्सा गुणमें प्रसिद्ध होनेवाले राजा उद्दायनकी कथा कहता हूँ ॥१॥ किसी एक दिन देवोंसे भरी हुई सभामें भव्य जीवोंको समझानेके लिये सौधर्म इन्द्रने सम्यग्दर्शनके गुणोंका वर्णन किया ॥२॥ और कहा कि भरतक्षेत्रके बंग देशान्तर्गत रोरुक नामके शुभ नगरमें राजा उद्दायन राज्य करता है। वह अपने पहिले जन्ममें उपार्जन किये हुए पुण्यकर्मक प्रभावसे सम्यग्दर्शनके तीसरे निविचिकित्सा गुणको विना किसी दोषके पालन करता है। इस प्रकार मति श्रुत और अवधि तोनों ज्ञानोंको धारण करनेवाले इन्द्रने उद्दायनकी बहुत प्रशंसा की ॥३-४॥ उद्दायनकी ऐसी भारी प्रशंसा सुनकर वासव नामका देव उसकी परीक्षा लेनेके लिये आया। उसने विक्रियासे एक मुनिका रूप धारण कर लिया, उस समय उसके उस बनाये हुए शरीरसे कोढ़ गल रहा था और वह बहुत ही घृणित रूपमें था ॥५॥ अपना ऐसा मुनिका रूप बनाकर वह देव उद्दायनके द्वारपर आया। पुण्यवान् उद्दायनने देखते ही भक्तिपूर्वक उसका पडिगाहन किया और विधिपूर्वक आहार दिया ॥६।। अपनी मायासे (विद्यासे) वह देव उद्दायनका सब अन्न खा गया और सब पानी पी गया फिर उसने अत्यन्त दुर्गन्ध और घृणित वमन कर दिया ॥७॥ उस वमनकी असह्य दुर्गन्धसे राजाके कुटुम्बी और सेवक सब भाग गये। केवल रानी प्रभावती और पुण्यवान् राजा उद्दायन मुनिकी वैयावृत्य करनेके लिये रह गये ॥८|| रानी उसके शरीरको पोंछने लगी। परन्तु उस मायाचारी मुनिने उसके ऊपर भी वमन कर दिया, परन्तु फिर भी वे दोनों उसके शरीरको धोने लगे और उस दुर्गन्धमय वमनको भी धोने लगे ।।९।। इतना ही नहीं उस समय राजाने स्वयं अपनी बड़ी निंदा की और कहा कि हा हा इन दुःखी मुनिराजके लिये मेरे द्वारा न जाने कोनसा अयोग्य आहार दिया गया है उसके कारण इनको इतना कष्ट हुआ है ॥१०॥ राजाके इस प्रकारके वचनको सुनकर देवको बहत ही आनन्द हुआ और उसे निश्चय हो गया कि इन्द्रका कहा हुआ सर्वथा ठीक है । इससे अपना बनाया हुआ मुनिका रूप छोड़ दिया और अपना स्वाभाविक दिव्यरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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