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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार
एकादशाङ्गविद्भव्यसेनसूरिस्तथापरे । सन्ति तेषां न नामापि नीयते गुरुणाऽधुना ॥२५ द्विष्टष्टेनापि तेनैतदुक्तं नान्यद्विचिन्तितम् । कारणं किचिदत्रास्ति नाहं जाने क्व मानसे ॥२६ तत्र गत्वा स्थितः पार्श्वे सुव्रतस्य मुनेः स वै । नमस्कृत्योत्तमाङ्गेन तद्गुणग्रामरञ्जितः ॥२७ वृष्ट्वा तदीयवात्सल्यं विशिष्टं जातनिश्चयः । प्रतिपाद्य नमस्कारं संगतो गुरुणोदितम् ॥२८ ततो वसतिकां शीघ्रमागतो भाषणं स्वयम् । न कृतं भव्यसेनेन तस्य गवतचेतसा ॥ २९ गृहीत्वा कुडिकामे बहिर्भूमि गतो व्रती । तेनापि सहमार्गेण तत्परीक्षादिहेतवे ॥३० हरिताङ्कुरसंछन्नो मार्गस्तेनापि दर्शितः । स्वविकुर्वणया तस्य स्वयं मार्गेऽङ्गिसंकुलः ॥ ३१ तं दृष्ट्वाप्यागमे जीवा कथ्यन्ते जिनभाषिते । एष तत्रारुचि कृत्वा गतः पादेन मर्दयन् ॥३२ शौचादिसमये नीरं शोषयित्वा वदन्नसौ । कुण्डिकायां जलं नास्ति स्वामिनो विकृतिः क्वचित् ॥३३ सरोवरेऽत्र संस्वच्छनीरे शौचं द्रुतं कुरु । भणित्वा पूर्ववत्मूढः प्राकरोच्छौचमञ्जसा ॥३४ ततस्तं स परिज्ञाय दृष्टिहोनं कुमार्गगम् । कृत्वा सोऽभव्यसेनाख्यं तस्य लोके गतो बलात् ॥३५ ततोऽन्यस्मिन् दिने तेन ब्रह्मरूपं प्रदशितम् । चतुर्मुखं सुयज्ञोपवीतयुक्तं सुराचितम् ॥३६ तत्पूर्वदिशि पद्मासनस्थं तत्रापि मायया । राजादयो भव्यसेनादयो मूढाः समागताः ॥३७
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कहना || २३-२४|| इतना कहकर वे चुप हो गये । तब क्षुल्लकने सोचा कि वहाँपर ग्यारह अंगके पाठी मुनिराज भव्यसेन भी हैं तथा और भी मुनि होंगे उनका गुरुदेवने नाम तक नहीं लिया । यही सोचकर क्षुल्लकने फिर पूछा, परन्तु दुबारा पूछनेपर भी मुनिराजने यही कहा कि अब और किसीसे कुछ नहीं कहना है । तब क्षुल्लकने विचार किया कि इसका कुछ भी कारण होना चाहिये; मैं उसे अभीतक समझ नहीं सका हूँ ।। २५-२६ ।। इसके बाद वह क्षुल्लक उत्तर मथुरा में पहुंचा और सुव्रत मुनिराजके समीप जाकर मस्तक झुकाकर उनको नमस्कार किया और उनके गुणोंसे वह बहुत ही प्रसन्न हुआ ||२७|| उनके विशेष वात्सल्यको देखकर गुरुके वाक्योंपर उसका दृढ़ निश्चय हुआ और फिर उसने गुरुका कहा हुआ नमस्कार भी उनको कह सुनाया ||२८|| इसके बाद वह शीघ्र ही वसतिकामें आया । वहाँपर भव्यसेन मुनि विराजमान थे, परन्तु उन्होंने अपने अभिमानमें आकर इससे कुछ बात भी नहीं की ||२९|| जब वे भव्यसेन मुनि कमण्डलु लेकर शौचके लिये बाहर गये तब उनकी परीक्षा करनेके लिये वह क्षुल्लक भी उनके साथ गया ||३०|| क्षुल्लक कुछ आगे चलकर अपनी विद्यासे सब मार्ग अनेक जीवोंसे भरी हुई हरी घाससे आच्छादित कर दिया ||३१|| उस हरी घाससे भरे हुए मार्गको देखकर भी ओर "भगवान् जिनेन्द्रदेवने इनमें एकेन्द्री जीव कहे हैं" ऐसा जानकर भी भव्यसेनने उसकी परवा नहीं की और उस घासको पैरोंसे कुचलता हुआ चला गया ||३२|| जब भव्यसेन शौचको बैठ गया तब उस चन्द्रप्रभ विद्याधरने अपनी विद्यासे उसके कमण्डलुका पानी सुखा दिया और सामने आकर कहने लगा कि हे स्वामिन् ! कमण्डलुमें जल नहीं है तो न सही इसमें कुछ चिन्ता करने की बात नहीं है, यह पासमें ही एक सरोवर स्वच्छ जलसे भरा है उसमें जाकर शुद्धि कर लीजिये। यह कहकर वह तो चला गया और मूर्ख भव्यसेनने उसी सरोवरमें जाकर अपनी शुद्धि कर ली ||३३-३४|| इसपरसे उस क्षुल्लक ने समझ लिया कि यह कुमार्गगामी मिथ्यादृष्टी है । उसने उसी दिनसे उसका नाम अभव्य सेन रख दिया ||३५|| अब उसने रेवतीकी परीक्षा करनी प्रारम्भ की। दूसरे दिन नगरके पूर्वदिशा की ओर वह ब्रह्माका रूप धारण कर विराजमान हो गया । उसने विद्याके बलसे अपने चार मुँह बना लिये, यज्ञोपवीत धारण कर लिया, देवोंको अपनी पूजामें लगा लिया और इस प्रकार
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