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________________ २३४ श्रावकाचार-संग्रह प्रविश्य गृहमध्येऽस्य विज्ञानेन निजेन तम् । समादाय व्रजन् वेगाददृष्टो रत्नादितेजसा ॥३७ ध्रियमाणः स तं त्यक्तः कोटवालाङ्गरक्षकैः । आगतो वटवृक्षे तं दृष्ट्वा पृष्ट्वा ददौ च तम् ॥३८ भूत्वा निःशंकितो धीमान् स श्रेष्टिवचने शुभे । एकवारेण सर्वं सः शक्थ्यं छित्वा पतेद्यदा ॥३९ तदा विद्या समायाता सिद्धा तं प्रार्थयत्यहो। आदेशं देहि मे स्वामिन् कृपया कार्यसाधकम् ।।४० नयेति तेन सा प्रोक्ता समीपं श्रेष्ठिनो हि माम् । तया नीतः खमार्गेण समारोप्य विमानके ॥४१ सुदर्शनमहामेरो जिनचैत्यालये शुभे । अनेकमहिमोपेते धृतस्तस्य पुरो भुवि ॥४२ अञ्जनो वीक्ष्य तं देवं जिनं चैत्यालयादिकम् । अगमन्मुदमत्यन्तं हेमरत्नादितन्मयम् ॥४३ प्रणम्य श्रीजिनं भूयस्तं भव्यं भक्तिनिर्भरः । अवोचच्च वचो धीमान श्रेष्ठिनं प्रत्यसौ शुभान् ॥४४ स्वामिन् यथा महाविद्या सिद्धा युष्मत्प्रसादतः । अत्रामुत्र भवेत्सौख्यं मम धर्म निरूपय ॥४५ ततो मत्वा समोपं तौ नत्वा चारणयोः क्रमौ । पृष्ठवन्तौ स्थितौ धर्म महानयं मुनीशयोः ॥४६ निकला ||३५-३६।। अपने विज्ञानबलसे' वह राजभवनमें घुस गया और अपनी कुशलतासे हार लेकर चलता बना। परन्तु उस हारमें लगे हुए रत्नोंका प्रकाश बहुत था इसलिये कोतवाल और पहरेदारोंसे छिप न सका और उन्होंने पकड़नेके लिये चोरका पीछा किया। परन्तु वह चोर पहरेदारोंको अपने पीछे पोछे आता हुआ जानकर उस हारको छोड़कर भाग गया। भागते भागते वह उसी वटवृक्षके नीचे आया जहाँ कि सोमदत्त माली आकाशगामिनी विद्या सिद्ध करनेके लिये प्रयत्न कर रहा था और डरकर चढ़ने उतरनेका काम कर रहा था। चोरने उस सबका कारण पूछा। उत्तरमें उस सोमदत्त मालीने भी सब ज्योंका त्यों बतला दिया ।।३७-३८॥ अंजनचोरको सेठके वचनोंपर विश्वास हो गया और उसने विना किसी शंकाके उसपर चढ़कर एक ही वार पंच नमस्कारका उच्चारण कर सब लडिये काट डालीं। जिस समय सब लडियोंके कट जानेपर वह नीचे गिरने लगा उसी समय आकाशगामिनी विद्याने आकर उसे रोक लिया और उससे प्रार्थना को कि हे स्वामिन् ! कृपाकर मुझे आज्ञा दीजिये इस समय आपका कौन-सा काम करूं ॥३९-४०।। तब अंजनचोरने कहा कि इस समय मुझे जिनदत्त सेठके समीप ले चलो। यह सुनकर उस विद्यादेवताने उसी समय विमान बनाया और उसपर बिठाकर आकाश मार्गसे ले चली। उस समय सेठ सुदर्शनमेरुपर चैत्यालयमें थे इसलिये वह विद्या भी उसे अनेक महिमाओंसे सुशोभित उस सुदर्शनमेरुके चैत्यालयमें ले गई और सेठके सामने जाकर पृथ्वी पर उसे उतार दिया ।।४१-४२।। अंजनचोर उस सुवर्ण और रत्नोंके बने हुए अकृत्रिम दिव्य जिन चैत्यालयको देखकर बहुत ही प्रसन्न हुआ ।।४३।। उसने बड़ी भक्तिसे भगवान् अरहन्त देवको नमस्कार किया और फिर उस बुद्धिमानने भव्य जिनदत्तके समीप आकर उनको नमस्कार किया और वह उनसे इस प्रकार मधुर वचन कहने लगा कि ॥४४॥ हे स्वामिन् ! जिस प्रकार आपके प्रसादसे मुझे यह महाविद्या सिद्ध हुई है उसी प्रकार इस लोक और परलोक दोनों लोकोंमें कल्याण करनेवाला धर्म मुझे बतलाइये।।४५।। अंजनचोरकी यह बात सुनकर वे सेठ उसको साथ लेकर समीप हो विराजमान दो चारण मुनियोंके समीप पहुँचे । दोनोंने उन मुनिराजोंके चरणकमलोंको नमस्कार किया और बैठकर सर्वोत्तम धर्मका स्वरूप पूछा ॥४६॥ उन दोनोंमें से बड़े मुनिराजने उन दोनोंके लिये अनेक महिमाओंसे सुशोभित १. उस समय एक प्रकारका अंजन होता था जिसे लगा लेने से उसको तो सब कुछ दिखाई देता था परन्तु वह स्वयं किसीको भी दिखाई नहीं पड़ता था और इसीलिये वह अंजनचोर कहलाता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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