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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार
२३३ ऊचे स शृणु भो धीमन् ! विद्यां देहि ममादरात् । पुष्पादिकं समादाय गच्छामि भवता सह ॥२५ ततो हि श्रेष्ठिना तस्मै धर्मसंसिद्धिकारणः । उपदेशोऽपि सम्पूर्णो दत्तः श्रीधर्महेतवे ॥२६ ततः कृष्णचतुर्दश्यां कृत्वा सत्प्रोषधद्वयम् । न्यग्रोधाख्ये नगे पूर्वशाखायां संबबन्धवैः ॥२७ अष्टोत्तरशतापादं दर्भशक्थ्यं निधाय च । अधमुहूविमुखास्त्राणि श्मशानेऽतिभयप्रदे ॥२८ पुष्पादिकं समादाय शक्थ्यमध्ये प्रविश्य च । उच्चरित्वा नमस्कारान् पञ्चनायकमन्त्रपान् ॥२९ उद्यम कुरुते यावत् तत्पादेकैकछेदने । तावच्छरिकयालोक्य तीक्ष्णास्त्राणि भयं ययौ ॥३० चिन्तितं तेन मूढेन यद्यसत्यं भविष्यति । वचनं श्रेष्टिनो दैवात् तदा मे मरणं भवेत् ॥३१ इति मत्वा शठः सोऽपि चढनोत्तरणं भयात् । कुर्वन् पुनः पुनः यावत्तावदन्यां कथां शृणु ॥३२ प्रजापालः नृपस्यैव कनकाख्या सुखप्रदा । राजी बभूव तस्या हि हृदि हारो विराजते ॥३३ दृष्ट्वा तं चिन्तितं सारं विलासिन्याः स्वमानसे । किमनेन विना जीवितव्येनास्ति प्रयोजनम् ॥३४ अञ्जनाख्यः पुनश्चौर आगतो निशि तद्गृहम् । सा ब्रूते यदि मे हारं ददासि नुपमन्दिरात ॥३५ तदा भर्ता त्वमेव स्यादन्यथा न च भूतले । इति श्रुत्वा स संतोष्य तामतो निर्गतो गृहात् ॥३६
भी वह विद्या दे दीजिये मैं भी आपके साथ पुष्पादिक लेकर चला करूँगा ॥ २५ ॥ उसकी यह प्रार्थना सुनकर सेठने धर्मकार्य करनेके लिये धर्मकार्योको सिद्ध करनेवाली उस विद्याके सिद्ध करनेका सब उपाय बतला दिया ॥ २६ ॥ उस विद्याको सिद्ध करनेके लिये सोमदत्तने पहिले दो प्रोषधोपवास किये फिर कृष्ण पक्षकी चतुर्दशीके दिन किसी अत्यन्त भयानक स्मशानमें एक भारी वटवृक्षकी पूर्व शाखा पर एक दाभका सींका बाँधा। उस सीकेमें एकसौ आठ दाभकी लड़ियाँ थीं और उसके नीचे भूमिपर ऊपरको मुँह किये हुए तीक्ष्ण शस्त्र गढ़े हुए थे ।। २७-२८ ॥ इतना काम करनेपर वह पुष्पादिक लेकर उस सीकेमें जा बैठा और सर्वश्रेष्ठ पंच नमस्कार मंत्रका उच्चारण कर एक-एक लड़ी काटनेका उद्योग करने लगा। इस प्रकार वह पहिली लड़ी काटना ही चाहता था कि नीचेके छुरा आदि तीक्ष्ण शस्त्रोंको देखकर वह डर गया और विचार करने लगा कि यदि दैवयोगसे सेठके वचन असत्य हो जॉय (सब लडियोंके काट लेनेपर भी विद्या सिद्ध न हो) तो फिर अवश्य ही मेरा मरण हो जायगा ॥२९-३१।। इस प्रकार विचार कर वह मूर्ख सीकेसे उतर आया परन्तु कुछ सोचकर फिर चढ़ गया। इसी प्रकार वह बहुत देर तक चढ़ने उतारनेका काम करता रहा । इसी बीच में एक दूसरी घटना इस प्रकार हुई ॥३२॥
उस समय उस नगरमें प्रजापाल नामके राजा राज्य करते थे, उनको सुख देनेवाली कनकावती रानी थी। उसके गलेमें एक रत्नोंका हार था जो कि बहुत ही सुन्दर था ॥३३।। उस हारको देखकर एक वेश्याने अपने मनमें विचार किया कि इस हारके विना जीना व्यर्थ है ॥३४॥ रातको उस वेश्याके घर अंजन नामका चोर आया । उससे उस वेश्याने कहा कि यदि तू राजमहलमें से लाकर वह रानीका हार मुझे देगा तभी मैं तुझे अपना स्वामी बनाऊँगी, अन्यथा नहीं। वेश्याकी यह बात सुनकर चोरने उसे धैर्य बंधाया और बड़े अहंकारसे उस हारको लेनेके लिये
१. एक एक बार पञ्च नमस्कार मंत्रका उच्चारण एक एक लड़ी काट लेने पर अर्थात् एक सौ आठ वार नमस्कार मन्त्रका उच्चारण एक सौ आठ लड़ियाँ काट लेने पर उस विद्याके सिद्ध होनेका
नियम था।
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