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________________ २१२ श्रावकाचार-संग्रह तेन कृतो महाघोरोपसर्गो दुस्सहो घनः । वघबन्धप्रयोगैश्च हावभावैर्दुक्तिभिः ॥१२ बखाच्चित्तं स सद्ध्याने वीतरागादिगोचरे । निश्चलं देहनिर्मुक्तं संवेगादिगुणाश्रितम् ॥१३ सुस्थिरोऽचलवद्धीरः साधुवत्सङ्गाजितः । प्रसन्नो जलवत्सोऽभूदगाधः सागराविवत् ॥१४ निरर्थकोऽमरो जातो लज्जाकुलितमानसः । धर्मसंवेगसम्पन्नस्त्यक्तमानस्तदा च सः ॥१५ प्रभातसमये सोऽपि जित्वा शेषपरीषहान् । कायोत्सर्ग विमुच्याशु स्थितो यावत्सुखेन वै ॥१६ ताम्यामागत्य शीघ्रण नमस्कारं विधाय सः । पूजितः परया भक्त्या दिव्यवस्त्रादिभूषणैः ॥१७ आकाशगामिनों विद्यां गृहाणेभां बुधोत्तम । सिद्धां कार्यकरां सारा धर्मयात्रादिहेतवे ॥१८ सारपञ्चनमस्कारप्राराधनप्रपूजनात् । परेषां सिद्धिमायाति सा विद्यः पुण्ययोगतः ॥१९ इत्युक्त्वा तं नमस्कृत्य प्रशस्य च मुहुर्मुहुः । अनेकवचनालापैः स्वस्थानं तौ गतौ पुनः ॥२० पूजामादाय संयाति नृलोके मन्दरादिके । पूजार्थं जिनबिम्बानां प्रत्यहं धर्महेतवे ॥२१ एकदा सोमदत्तादिपुष्पान्तवट केन सः । प्रपृष्टः प्रत्यहं कुत्र व्रजतीति भवानहो ॥२२ स ब्रूते शृणु हे वत्स पूजनार्थं व्रजाम्यहम् । अकृत्रिमजिनागारे प्रतिमानां शुभाय वै ॥२३ आह सोऽपि पुनः श्रेष्ठिन् कथं तत्र प्रयामि भीः । तेनोक्तं तस्य तत्सर्वं विद्यालाभादिकारणम् ॥२४ प्रारम्भ किया ॥ १२ ॥ परन्तु वे सेठ भगवान् वीतराग परमदेवके ध्यान करनेमें तल्लीन बने रहे, उन्होंने शरीरसे ममत्व छोड़ दिया । अपने संवेग आदि गुण बढ़ा लिये और वे निश्चल होकर ध्यान करते रहे ॥ १३ ॥ उस समय वे धीरवीर सेठ पर्वतके समान निश्चल थे, मुनिके समान परिग्रह रहित थे, जलके समान निर्मल थे, और सागरके समान गम्भीर थे ।। १४ ।। जब देव सब कुछ कर चुका, आगे करने में असमर्थ हो गया तब वह अपने चित्तमें बहुत हो लज्जित हुआ। उसने अपना अभिमान छोड़कर धर्म स्वीकार किया और संवेग धारण किया ॥ १५ ॥ इधर सबेरा होते ही सब परीषहोंको जीतकर सेठने अपने कायोत्सर्गका विसर्जन किया और कुछ देरतक सुखसे बैठे ॥ १६ ॥ इतनेमें ही वे दोनों देव इनके पास आये । दोनोंने सेठको नमस्कार किया और बड़ी भक्तिसे दिव्य वस्त्र और आभूषणोंसे सेठकी पूजा की ॥ १७ ।। तदनन्तर उन देवोंने सब हाल कहा और प्रार्थना की कि हे उत्तम विद्वान् ! आप धर्मकार्योंके लिये तथा यात्रा आदि धार्मिक कार्य करनेके लिये सब कार्योंको सिद्ध करनेवाली और सारभूत इस आकाशगामिनी विद्याको स्वीकार कीजिये ॥ १८ ॥ यदि सारभूत पंच नमस्कार मंत्रके द्वारा आराधना और पूजा की जायगी तो पुण्यकर्मके उदयसे यह विद्या अन्य लोगोंको भी सिद्ध हो जायगी ॥ १९ ।। इस प्रकार कहकर, उनको नमस्कार कर, बार-बार उनकी प्रशंसा कर और अनेक प्रकारकी बातें कर वे दोनों देव अपने स्थानको चले गये ॥ २० ॥ इधर जिनदत्त सेठ उस आकाशगामिनी विद्याके प्रभावसे पूजाकी सामग्री लेकर मेरु आदि पर्वतोंपर ढाईद्वीपके अकृत्रिम चैत्यालयोंकी पूजा करनेके लिये प्रतिदिन जाने लगा ॥ २१ ॥ ‘किसी एक दिन उस सेठसे सोमदत्त नामके मालीने पूछा कि हे प्रभो! आप प्रतिदिन कहाँ जाया करते हैं ? तब सेठने उत्तर दिया कि हे वत्स ! सुन, मैं प्रतिदिन अकृत्रिम चैत्यालयमें विराजमान अत्यन्त मनोहर जिनप्रतिमाकी पूजा करनेके लिये और उससे पुण्य सम्पादन करनेके लिये जाया करता हूँ ॥ २२-२३ ।। तब सोमदत्तने फिर पूछा कि आप किस प्रकार जाया करते हैं तब इसके उत्तरमें सेठने विद्युत्प्रभ देवकी सब कथा कह सुनाई और उस आकाशगामिनी विद्याका भी सब हाल कह सुनाया ॥ २४ ॥ तब सोमदत्तने फिर प्रार्थना की कि हे विद्वन् ! कृपाकर मुझे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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