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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार २३५ ज्येष्ठो मुनिस्ततो ब्रूयाद्धर्म तौ प्रतिसौख्यदम् । अनेकमहिमोपेतं यतिः श्रावकगोचरम् ॥४७ त्यक्तदोषं महाधर्म श्रुत्वा संगविजितम् । अञ्जनो याचयामास दीक्षां श्रीमुनिपुंगवान् ॥४८ मुनिब्र ते त्वया भद्रा भद्रमेतत्कृतं तपः ।याचितं तव चायुः स्याद्यतः कांश्चिद्दिनानपि ॥४९ जिनमुद्राः समादाय कृत्वा घोरतरं तपः । शुक्लध्यानादियोगेन हत्वा घातिचतुष्टयम् ॥५० शीघ्रमुत्पादयामास त्रैलोक्यक्षोभकारणम् । केवलज्ञानसाम्राज्यमव्ययं सोऽञ्जनो मुनिः ॥५१ शेषकर्माणि निर्मूल्य शक्रराजादिपूजितः । कैलासशिखरारूढो गतो मोक्षं स ना सुधीः ॥५२ अञ्जनो व्यसनासक्तो धीरो निःशङ्किताश्रयात् । मुक्ति यदि गतो ध्यानादनन्तसुखसंयुतम् ॥५३ सदृष्टिः सन् व्रतोपेतो यो धर्मादिविभूषितः । निःशङ्कितगुणात् सोऽपि न स्यात् कि मुक्तिवल्लभः ॥५४ विभीषणमहाराजा निःशङ्कगुणधारकः । यः स्यात्तस्य कथा ज्ञेया रामायणनिरूपिता ॥५५ वसुदेवोऽभवद् भूपो राज्ञी तस्यापि देवकी । ज्ञेया कथा तयोरेवं हरिवंशात्सम्यक्त्वजा ॥५६ अन्येऽपि बहवः सन्ति निःशङ्का गुणभूषिताः । ये ते सर्वेऽपि विज्ञेया आगमाज्जिनभाषितान् ॥५७ तस्माद्भव्यैर्न कर्तव्या शङ्का सिद्धान्तदेशने । निःशङ्किता विधेयापि दृष्टिज्ञानादिसंयुतैः ॥५८ धृतप्रथमगुणो यो नीतचारित्रभारः, कृतपरमतपश्च सर्वकर्माणि हत्वा। अगमदमलसौख्यं मुक्ति सोऽपि नोऽव्याद्, भवजलनिधिपोतावञ्जनाख्यो यतीन्द्रः ॥५९ इति श्री भट्टारकसकलकोतिविरचिते प्रश्नोत्तरश्रावकाचारे निःशतिगुणव्यावर्णने अञ्जनचोरकथानिरूपणो नाम पञ्चमः परिच्छेदः ॥५॥ और सदा सुख देनेवाला मुनि और श्रावक दोनोंका धर्म निरूपण किया ॥४७॥ सब तरहके परिग्रहसे रहित और सब दोषोंसे रहित ऐसे मुनिराजके महाधर्मको सुनकर उस अंजनचोरने उन मुनिराजसे दीक्षा धारण करनेकी प्रार्थना की ॥४८|| उत्तरमें मुनिराजने कहा कि हे भद्र ! तूने यह बहुत ही अच्छा विचार किया क्योंकि अब तेरी आयु थोड़े ही दिनोंकी रह गई है इसलिये अब तपश्चरण करना ही सर्वोत्तम है ॥४९।। तदनन्तर उस अंजनचोरने दीक्षा धारण की, घोर तपश्चरण किया और शुक्लध्यानके निमित्तसे चारों घातिया कर्मोको नष्ट किया ॥५०॥ उन अंजन मुनिराजने घातिया कर्मोको नाशकर तीनों लोकोंमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाला और सदाकाल एक-सा रहनेवाला केवलज्ञान रूपी साम्राज्य बहुत शीघ्र प्राप्त कर लिया ॥५१॥ उस बुद्धिमानने समयानुसार बाकीके अघातिया कर्मोंका नाश कर डाला और इन्द्र नरेन्द्र आदि सबसे पूज्य होकर कैलास पर्वतसे मोक्ष प्राप्त किया ॥५२॥ देखो जो अंजनचोर अनेक व्यसनोंमें लीन था वह भी निःशंकित गुणके प्रभावसे ध्यान कर अनन्त सुखोंसे परिपूर्ण मोक्षमें जा विराजमान हुआ फिर भला जो सम्यग्दृष्टी है, अनेक श्रेष्ठ व्रतोंको पालन करता है और अनेक धर्मकार्योंसे सुशोभित है वह निःशंकित गुणके प्रभावसे मोक्षका स्वामी क्यों नहीं हो सकता ? ॥५३-५४॥ इसी प्रकार महाराज विभीषणने भी निःशंकित गुणका पालन किया था उनकी कथा रामायण में (पद्मपुराणमें) कही है वहाँसे समझ लेना चाहिये ॥५५॥ द्वारिकापुरीके राजा वसुदेव और उनकी रानी देवकी भी निःशंकित अंगमें प्रसिद्ध हुई हैं उनकी कथा भी हरिवंशपुराणसे जान लेनी चाहिये ॥५६॥ इस निःशंकित गुणसे विभूषित और भी बहुतसे लोग हुए हैं उन सबकी कथाएँ भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्रोंसे जान लेनी चाहिये ॥५७। इसलिये भव्य जीवोंको भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए सिद्धान्तशास्त्रोंमें तथा उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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