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________________ २२६ श्रावकाचार-संग्रह विवेको हन्यते येन मूढता च प्रसूयते । नीयन्ते प्राणिनः श्वभ्रं मिथ्यात्वं तज्जगुजिनाः ॥११ अनन्तदुःखसन्तानदानदक्षं बुधैः मतम् । मिथ्यात्वं पापसंबोज धर्मारण्यहुताशनम् ॥१२ रोगक्लेशकरं दुष्टमनन्तभवकारणम् । मुक्तिधामकपाटं च मिथ्यात्वं त्यज दूरतः ॥१३ मिथ्यावृष्टिर्न जानाति धर्म हिंसाविवजितम् । असत्यं च कुधर्म ना यथोन्मत्तः पदार्थकम् ॥१४ ज्ञानचारित्रधर्मादि सर्व नश्यति येन तत् । मिथ्यात्वं विषतुल्यं भो त्यज त्वं बुद्धिनाशकम् ॥१५ एकान्तं विपरीतं च वैनयिकं च संशयम् । अज्ञानं पञ्चधा प्रोक्तं मिथ्यात्वं मुनिपुंगवैः॥१६ कथ्यते क्षणिको जीवो यत्र तत्र च सर्वथा । अन्यः कर्म करोत्येव भुङ्क्ते अन्यो हि तत्फलम् ॥१७ मत्स्याविभक्षणे दोषो नास्ति दुःखाकरं खलम् । मिथ्यात्वं विद्धि तन्मित्र कुबोधमतकल्पितम् ॥१८ पुण्यं जीववधाद्यत्र शुद्धिः स्नानेन कल्प्यते । क्रूरकर्मरता देवाः गुरवः कामलालसाः ॥१९ पूजनं पशुदुष्टानां तर्पणं मृतसज्जनात् । विपरीतं चतं ज्ञेयं मिथ्यात्वं द्विजसंभवम् ।।२० विनयो गीयते यत्र पात्रापात्रेषु प्रत्यहम् । देवादेवेषु तद्विद्धि मिथ्यात्वं तापसप्रजम् ॥२१ ब्रूयते यत्र तीर्थेशे चाहारो मुक्तिसंभवम् । स्त्रीणां गर्भापहारं च वर्द्धमानस्य दुःखदम् ॥२२ - यष्टिकावस्त्रपात्रादि सर्व धर्मस्य साधनम् । तद्धि संशयमिथ्यात्वं भवेत्स्वेतपटप्रजम् ॥२३ क्योंकि ये जीव जानकर ही उनका त्याग कर सकते हैं ॥१०॥ उत्तर-जिससे विवेक सब नष्ट हो जाय, मूढ़ता प्रकट हो और जो प्राणियोंको नरकमें पटक दे उसको श्री जिनेन्द्रदेवने मिथ्यात्व कहा है ॥११॥ यह मिथ्यात्व अनेक रोग क्लेश उत्पन्न करनेवाला है, दुष्ट है, अनन्त संसारमें परिभ्रमण करनेवाला है, और मोक्षमहलमें जानेसे रोकनेके लिये जुड़े हुए किवाड़ोंके समान है। यह मिथ्यात्व अनन्त परम्परारूप दुःखोंको देनेमें चतुर है, पापका बोज है और धर्मरूपो वनको जला देनेके लिये अग्निके समान है इसलिये हे वत्स ! इसे तू दूरसे ही छोड़ ॥१२-१३।। मिथ्यादृष्टी जीव हिंसा रहित धर्मको कभी नहीं समझ सकता । जिसप्रकार पागल पुरुष पदार्थोंको उलटा ही जानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टी जीव भो असत्य और कुधर्मको ही जानता है ॥१४॥ उस मिथ्यात्वसे ज्ञान चारित्र धर्म आदि सब नष्ट हो जाता है। यह जीवोंको विषके समान है और बुद्धिको नाश करनेवाला है इसलिये हे भव्य, इसे तू शीघ्र ही छोड़ ॥१५॥ मुनिराजोंने इस मिथ्यात्वके पाँच भेद बतलाए हैं-एकान्त, विपरीत, वैनयिक, संशय और अज्ञान ॥१६।। जिस मतमें जीवको सर्वथा क्षणिक बतलाया है, उस मतमें कर्मोको अन्य जीव करता है और उनके फलोंको अन्य ही भोगता है तथा जो मछली आदिके भक्षण करने में दोष ही नहीं समझते उनका वह दुःख देनेवाला, दुष्ट और केवल अपनी कुबुद्धिसे कल्पना किया हुआ बौद्धमत एकान्त मिथ्यात्व है ।।१७-१८।। जिस मतमें जीवोंकी हिंसासे पुण्य बतलाया गया हो, स्नानसे शुद्धि बतलाई गई हो, जिनके देव हिंसा आदि क्रूर कर्मों में लगे हुए हैं, गुरु लोग कामकी लालसामें लिप्त हों, जिसमें पशु वृक्ष आदिकी पूजा करना बतलाया हो और मृत मनुष्योंका तर्पण बतलाया हो, ऐसा ब्राह्मणोंका वैदिक मत विपरीत मिथ्यात्व समझना चाहिए ॥१९-२०॥ जिस मतमें प्रतिदिन पात्र अपात्रोंकी, देव अदेवोंकी सबको विनय की जाती हो वह तपस्वियोंका विनय मिथ्यात्व कहलाता है ।।२१।। जो तीर्थंकर अरहन्तदेवमें भी आहारकी कल्पना करते हैं, स्त्रियोंको भी मोक्ष होना बतलाते हैं, जो वर्तमान स्वामीका गर्भापहरण मानते हैं, जो लकड़ी, वस्त्र, पात्र आदि सबको धर्मका साधन मानते हैं (धर्मोपकरण मानकर साधु लोग रखते हैं) वह दुःख देनेवाला श्वेताम्बरों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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