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________________ चौथा परिच्छेद आनन्दोत्पत्तिसद्गेहं नमस्कृत्याभिनन्दनम् । भेदं च कारणं हेतुं वक्ष्ये सद्दर्शनस्य च ॥१ भव्यः पञ्चेन्द्रिया संज्ञी काललब्ध्यादिप्रेरितः । पूर्णः गृह्णाति सम्यक्त्वमङ्ग्युपशमादिकम् ॥२ अन्तर्मुहूर्तकालेन मिथ्यात् प्रतिपद्य सः । सायोपशमिकं नाम्ना प्रावते दर्शनं भुवि ॥३ क्षायिकं भजते कश्चिद् भव्योऽत्यासत्रमुक्तिगः । अकम्पं मेरुसंतुल्यं कर्मेन्धनहुताशनम् ॥४ सप्तप्रकृतिदुष्कर्मशमने प्रथमं शमम् । जायते भव्यजीवानामूलस्वच्छजलोपमम् ॥५ षट्प्रकृतिशमेनैव सम्यक्त्वोदयकर्मणा । क्षायोपशमिकं विद्धि प्रार्द्धस्वच्छोदकोपमम् ॥६ सप्तप्रकृति निःशेषक्षयाज्जीवा भजन्ति वै । क्षायिक मुक्तिदं सारं स्वच्छनीरसमं क्रमात् ॥७ सम्यङ्मिथ्यात्वमिश्रेण मिथ्यात्वप्रकृतिर्भवेत् । त्रिधा चतुर्थानन्तानुबन्धिकर्मकषायजम् ॥८ सप्तप्रकृतिकर्माणि हत्वा त्वं भज दर्शनम् । सोपानं प्रथम मुक्तिगेहे श्रीजिनभाषितम् ॥९ मिथ्यात्वं कीदृशं स्वामिन् कषायं मे निरूपय । ज्ञाते सति पुनस्त्यागं तत्कर्तुं शक्यते जनैः ॥१० __अथानन्तर-आनन्द बढ़ानेवाले भगवान् अभिनन्दन परमदेवको नमस्कार कर सम्यग्दर्शनके भेद, कारण और हेतु कहता हूँ ॥११॥ जो जीव भव्य हो, संजी हो, पर्याप्तक हो और काललब्धि आदि समस्त कारण जिसे प्राप्त हो गये हों ऐसा जीव प्रथम औपशमिक सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है ।।२।। फिर वह अन्तमुहूर्त के बाद मिथ्यात्व गुणस्थानमें निवास कर क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है । भावार्थ-औपशमिक सम्यग्दर्शनका समय अन्तमुहूर्त है । अन्तमुहूर्तके बाद मिथ्यात्वका उदय हो जाता है। पुनः समयानुसार क्षायोपशमिक होता है ।।३।। अत्यन्त शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीव क्षायिक सम्यग्दर्शनको प्राप्त होते हैं। यह क्षायिक सम्यग्दर्शन सुमेरु पर्वतके समान अकम्प है, कभी नष्ट नहीं होता और कर्मरूपी ईंधनको अग्निके समान है ॥४॥ जिस प्रकार मिट्टी मिले पानी में फिटकरी या कतकफल डाल देनेसे मिट्टी नीचे बैठ जाती है और शुद्ध जल ऊपर आ जाता है उसी प्रकार अनन्तानुबन्धो क्रोध मान माया लोभ, मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति इन सात प्रकृतियोंके उपशम होनेसे भव्य जीवोंके पहिला औपमिक सम्यग्दर्शन होता है ।।५।। पहली छह प्रकृतियोंके उदयाभावी क्षय होनेसे तथा उपशम होनेसे और देशघाती सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय होनेसे क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। जैसे मिट्टी मिले जलमसे मिट्टीका कुछ भाग निकल गया हो और थोड़ा सा बना हो । उसी प्रकार चल मलिन आदि दोष जिसमें हों वही क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन है ॥६॥ ऊपर लिखी हुई सातों प्रकृतियोंके अत्यन्त क्षय होनेसे जीवोंके क्षायिक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। यह स्वच्छ जलके समान सम्यग्दर्शन सारभूत है और मोक्ष प्राप्त करनेवाला है ॥७॥ मिथ्यात्व प्रकृतिके तीन भेद हैं-मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति मिथ्यात्व। तथा अनन्तानुबन्धी कषायके चार भेद हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ । हे वत्स, तू इन सातों प्रकृतियोंको नष्ट कर सम्यग्दर्शनको धारण कर । यह सम्यग्दर्शन मोक्ष महलको प्रथम सीढ़ी है ऐसा भगवान् सर्वज्ञदेवने कहा है ।।८-९॥ प्रश्न-हे स्वामिन्, यह मिथ्यात्व कैसा है और कषाय कैसे हैं सो कृपा कर बतलाइये। Jain Education in rational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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