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________________ भावकाचार-संग्रह भज जिनवरदेवं श्रीगणेन्द्राविसेव्यं, कुरु परमपवित्रं तत्प्रणीतं सुधर्मम् । सकलगुणगरिष्ठं सद्गुरुं संश्रय त्वं, भवति बुधसुबीजं तत्त्रयं वर्शनस्य ॥१५५ विगतसकलदोषं तीर्थनाथैः प्रणीतं, भुवनपतिसुसेव्यं भव्यसत्त्वैकपात्रम् । परमगुणनिधानं मोक्षवृक्षस्य बीजं, पिब विगतकुशङ्कां दर्शनाख्यं सुधाम्बु ॥१५६ इति श्रीभट्टारकसकलकीर्तिविरचिते प्रश्नोत्तरश्रावकाचारे देवधर्मगुरुप्ररूपको नाम तृतीयः परिच्छेदः ॥३॥ कहे हुए परम पवित्र धर्मको धारण कर, और अनेक गुणोंसे सुशोभित निर्ग्रन्थ गुरुओंका स्मरण कर। ये तीनों ही सम्यग्दर्शनके प्रधान कारण हैं अर्थात् इन तीनोंका यथार्थ श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन कहलाता है ।।१५५।। हे वत्स ! यह सम्यग्दर्शन एक अमृतके समान है क्योंकि यह समस्त दोषोंसे रहित है । भगवान् तीर्थंकर परमदेवने स्वयं इसको निरूपण किया है, तीनों लोकोंके इन्द्र, इसकी सेवा करते हैं, यह भव्यरूपी पात्रमें ही रह सकता है अभव्यके कभी नहीं होता, तथा यह उत्तम गुणोंका निधि है इसके होनेसे अनेक उत्तम गुण अपने आप प्रगट हो जाते हैं और मोक्षरूपी वृक्षका तो यह बीज है। इसके प्रगट होनेसे मोक्ष अवश्य मिलती है इसलिये सब प्रकारकी शंकाओंको छोड़कर तू इसका पान कर अर्थात् इस सम्यग्दर्शनको धारण कर ॥१५६।। इस प्रकार आचार्य सकलकीतिविरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचारमें देव गुरु धर्मके स्वरूपको कहनेवाला यह तीसरा परिच्छेद समाप्त हुआ ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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