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________________ २२३ प्रश्नोत्तरश्रावकाचरं देशका ये तरति स्वं संसारे दुःखसागरे । तारयन्ति समर्थास्ते परेषां भव्यदेहिनाम् ॥१४३ गुरून संगविनिर्मुक्तान ये भजन्ति बुधोत्तमाः । नाकराज्यादिकं प्राप्य मुक्तिनाथा भवन्ति ते ॥१४४ निर्गन्थान् ये गुरून मुक्त्वा सेवन्ते कुगुरून पुनः । चिन्तामणीन् परित्यज्य काचान गृह्णन्ति तेऽधमाः ॥१४५ एकाग्रचेतसा धीमन् त्वं त्यक्त्वा कुगुरून्, भज । दिगम्बरान् महाधोरान् निर्ग्रन्थान् मुक्तिहेतवे ॥१४६ स्वामिस्त्वं कुगुरूनत्र तान मे कथयादरात् । संसारजलघौ मग्नान् धर्मध्यानादिजितान् ॥१४७ धनधान्यादिसंसक्तान् नित्यं कामार्थलालसान् । आरौिद्रपरान् मूढान् गृहव्यापारभारितान् ॥१४८ मिथ्यात्वप्रेरकान् पापपण्डितान् योषिताश्रितान् । संप्रार्थनपरांल्लोके दुष्टान् दुर्गतिदायकान् ॥१४९ मिथ्योपदेशकान् नीचान् मूढसत्त्वप्रतारकान् । सत्क्रोधानपदान् लग्नान् पथि मिथ्यात्वपूरिते ॥१५० जिनमार्गपरित्यक्तांस्त्यज त्वं कुगुरून् बहून् । सानिव सदा भ्रातो दूरतः पापशङ्कया ॥१५१ स्वयं मज्जन्ति ये मूढाः भवाब्धि तारयन्ति ते । कयं वा परजीवानां दुष्टाचारपरायणाः ॥१५२ वरं सारिचौराणां संगं स्तान्न परैः समम् । मिथ्यात्वपथसंलग्नरनन्तभवदुःखदम् ॥१५३ इति मत्वा महाभाग भज सद्गुरुपुङ्गवान् । स्वर्गमुक्त्यादिसिद्धयर्थं सर्वसत्त्वोपकारकान् ॥१५४ दुःखोंसे भरे हुए इस संसार सागरसे स्वयं तरते हैं और अन्य भव्य जीवोंको पार कर देने में समर्थ हैं ऐसे परिग्रह रहित गुरुओंकी जो बुद्धिमान् सेवा भक्ति करते हैं वे स्वर्गादिकके उत्तम साम्राज्य भोगकर अन्तमें मोक्ष सुखके स्वामी होते हैं ॥१४३-१४४।। जो अधम निर्ग्रन्थ गुरुओंको छोड़कर कुगुरुओंकी सेवा करते हैं वे चिन्तामणि रत्नको छोड़कर काचको स्वीकार करते हैं ॥१४५।। इसलिये हे विवेकी भव्य ! तू मोक्ष प्राप्त करनेके लिये कुगुरुओंको छोड़कर एकाग्र चित्तसे महा धीर वीर दिगम्बर और निर्ग्रन्थ मुनियोंकी सेवा भक्ति कर ॥१४६।। प्रश्न-हे स्वामिन् ! जो संसाररूपी महासागर में डूब रहे हैं और धर्मध्यान आदिसे शुभ भावनाओंसे रहित हैं ऐसे कुगुरुओंका स्वरूप कृपाकर कहिये ॥१४७।। उ०-जो धन धान्य आदिमें लगे हुए हैं, सदा अर्थ और काम दो पुरुषार्थोंकी ही लालसा रखते हैं, जो आर्तध्यान तथा रौद्रध्यानमें तत्पर रहते हैं, घर सबन्धी व्यापारके बोझसे लदे हुए हैं, मिथ्यात्वको प्रगट करनेवाले हैं, पापोंके करनेमें चतुर हैं, स्त्रियोंके आश्रय रहते हैं, सदा माँगने में लगे रहते हैं, जो दुष्ट हैं, मूर्ख हैं, दुर्गतिके देनेवाले हैं, मिथ्या उपदेश देनेवाले हैं, मिथ्या उपदेश देनेवाले हैं, नीच हैं, मूर्ख जीवोंको ठगते फिरते हैं, क्रोधादिक कषायोंमें लगे हुए हैं, सदा मिथ्यात्वको बढ़ाते रहते हैं, और जिन्होंने जिनमार्गको छोड़ रक्खा है, ऐसे अनेक कुगुरु हैं, हे भाई ! तू पापोंसे बचनेके लिये सर्प के समान दूरसे ही उनका त्याग कर ॥१४८-१५१॥ अनेक दुराचारोंमें लगे हुए जो कुगुरु संसाररूपी समुद्र में स्वयं डूब रहे हैं वे भला अन्य जीवोंको कैसे पार कर सकेंगे ॥१५२।। सर्प, शत्रु, और चोर आदिका समागम करना अच्छा परन्तु मिथ्यात्व मार्गमें लगे हुए इन कुगुरुओंका समागम अच्छा नहीं क्योंकि सर्प शत्रु आदिके समागमसे एक ही भवमें दुःख होता है परन्तु इन कुगुरुओंके समागमसे अनन्त भवों तक दुःख प्राप्त होता रहता है ॥१५३।। यही समझकर हे भव्यजीव ! हे भाग्यशालिन् ! स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिये तू समस्त जीवोंका उपकार करनेवाले श्रेष्ठ निर्ग्रन्थ गुरुओंकी ही सेवा भक्ति कर ।।१५४|| हे भव्य जीव ! गणधरादि महापुरुष भी जिनकी सेवा करते हैं ऐसे श्री जिनेन्द्रदेवकी सेवा कर, तथा उन्हीं श्री जिनेन्द्र देवके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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