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________________ २२२ श्रावकाचारसंग्रह जिनमार्गाद्विपक्षं यवतधर्मतपोऽखिलम् । दानपूजादिकं तच्च मिथ्यात्वं विद्धि दुःखदम् ॥१३१ विधाय निश्चयं प्रोच्चैः धर्मे श्रीजिनभाषिते । जिनवेषान्विताः सेव्या निर्ग्रन्थाः गुरवस्त्वया ॥१३२ सर्वसत्त्वदयोपेतान् शश्वद्धर्मोपदेशकान् । विकथादिविनिर्मुक्तान् हेमतृणसमोपमान् ॥१३३ गिरिशून्यगृहावासान् ध्यानविश्वस्तकिल्विषान् । बाह्याभ्यन्तरभेदेन त्यक्तसर्वपरिग्रहान् ॥१३४ निजितेन्द्रियसच्चौरान मारमातङ्गघातकान् ।त्यक्तकार्यादिसंस्कारान् महासत्त्वान् शुभाशयान्॥१३५ सर्वाङ्गमलसंलिप्तान् निर्मलान् संगजितान् । त्रिकालयोगसंयुक्तान ध्यानाध्ययनतत्परान् ॥१३६ मौनव्रतधरान् धीरान सर्वाङ्गश्रुतपारगान् । क्षमादिवशधाधर्मयुक्तान् जितपरीषहान् ॥१३७ दिगम्बरधरांस्त्यक्तदण्डशल्यत्रयादिकान् । विरक्तान् कामभोगेषु रक्तान् मुक्त्यादिके सुखे ॥१३८ दुर्बलीकृतसागान् सबलीकृतसद्गुणान् । सिंहनिष्क्रीडिताधुग्रतपःसंसक्तमानसान् ॥१३९ मूलोत्तरगुणोपेतान् प्रसन्नान् सज्जलोपमान् । कर्मेन्धनाग्निसादृश्यान् गम्भीरान् सागरानिव ॥१४० प्रावृट्काले स्थितान् वृक्षमूले हेमन्तिकेऽचलान् । चतुर्मार्गे च ग्रीष्मे तान् नगशृङ्गेमुखीश्वरान् ॥१४१ अनेकऋद्धिसम्पूर्णान समर्थान् भव्यतारणे । निर्भयान् सद्गुरून नित्यं भज त्वं स्वर्गमुक्तये ॥१४२ दशभिः कुलकम् । आदि भगवान् जिनेंद्र देवके कहे हुए मार्गसे विरुद्ध है उस सबको दुःख देनेवाला मिथ्यात्व समझना चाहिये ॥१३१।। इस प्रकार भगवान् जिनेंद्रदेवका कहा हुआ धर्म तुझे बतलाया उसका, तू निश्चय कर । अब आगे गुरुका स्वरूप बतलाते हैं । जिनका भेष श्री जिनेंद्रदेवके समान है और जो चौबीस प्रकारके परिग्रहसे रहित हैं ऐसे गुरुकी तू सेवा कर ॥१३२।। जो समस्त जीवोंपर दया करते हैं, उत्तम क्षमा आदि दश धर्मोंका उपदेश देते हैं, विकथा आदि पापोंसे सर्वथा रहित हैं, जो तृण और सुवर्णको समान जानते हैं, जो पर्वतोंपर अथवा कोटर गुफा आदि सूने मकानोंमें रहते हैं, जिन्होंने अपने ध्यानसे समस्त पापोंको धो डाला है, जिन्होंने दश प्रकारका बाह्य परिग्रह और चौदह प्रकारका अन्तरंग परिग्रह सर्वथा छोड़ दिया है, जिन्होंने इन्द्रियरूपी चोरोंको सर्वथा जीत लिया है, कामदेवरूपी हाथीको मार भगाया है, शरीरके नहाने घोने आदि सब संस्कारोंका त्याग कर दिया है, जो महाबलवान हैं अथवा महापुरुष हैं, जिनके परिणाम सदा निर्मल रहते हैं, यद्यपि जिनके समस्त शरीरमें मैल लगा हुआ है तथापि परिग्रह रहित होनेसे जो सदा निर्मल रहते हैं, जो प्रातः काल, मध्याह्नकाल, सायंकाल तीनों समय योग धारण करते हैं, जो ध्यान और अध्ययन करनेमें सदा तल्लीन रहते हैं, जो मौनव्रत पालन करते हैं, धीर वीर हैं, द्वादशांग श्रुतज्ञानके पारगामी हैं, उत्तम क्षमा आदि दशों धर्मोको पालन करते हैं, समस्त परीषहोंको जीतते हैं, दिगम्बर मुद्रा धारण करते हैं, जिन्होंने तीनों शल्य और दण्डोंका त्याग कर दिया है, जो काम भोगोंसे विरक्त हैं, मोक्ष सुखमें आसक्त हैं, जिनका समस्त शरीर दुर्बल हो रहा है, परंतु श्रेष्ठ गुणोंको जिन्होंने अत्यंत बलवान बना लिया है, जिनका हृदय सिंहनिःक्रीडन, उग्र तप आदि कठिन तपोंमें सदा तल्लीन रहता है, जो मूल गुण और उत्तर गुणोंसे सुशोभित हैं, जो कर्मरूपी ईंधनके लिये जलती हुई अग्निके समान हैं, जो समुद्रके समान गंभीर हैं, जो वर्षाकालमें वृक्षके नीचे विराजमान रहते हैं, शीतकालमें चौहटे मैदानमें अकेले विराजमान रहते हैं और ग्रीष्मऋतुमें पर्वतके शिखरपर जाकर तप करते हैं, जो अनेक ऋद्धि सिद्धियोंसे परिपूर्ण हैं, भव्य जीवोंको संसार समुद्रसे पार कर देनेके लिये समर्थ हैं और जो सदा निर्भय रहते हैं. ऐसे मुनिराज ही श्रेष्ठ गुरु कहे जाते हैं। हे भव्य ! स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिये तू ऐसे श्रेष्ठ गुरुओंकी ही सेवा कर ॥१३३-१४२।। जो अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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