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________________ प्रश्नोतरावकाचार २२७ अज्ञानजं कुमिथ्यात्वं भवेत्म्लेच्छादिगोचरम् । खाद्याखाद्यपरित्यक्तविचारं शून्यवादनम् ॥२४ पञ्चप्रकारमिथ्यात्वं दूरं तं मतकल्पितम् । उक्तं स्यादबहुधाप्यन्यदनेकाशयजं भुवि ॥२५ मिथ्यात्वकर्मजं ज्ञेयं मिथ्यात्वं धर्मनाशकम् । ज्ञानचारित्रनिर्मूलस्फोटकं पापकारणम् ।२६ सम्यक्त्वप्रकृति या दर्शनस्थ मलप्रदा। स्वपरादिषु बिम्बेषु ममत्वजनका हठात् ॥२७ समानं सर्वदेवेषु सर्वधर्मादिकेषु च । करोति परिणामं यन्मिश्रकर्म तदुच्यते ॥२८ क्रोधमानादिभेदेन कषायाः पापहेतवः । चतुर्षा हि भवन्त्याद्या अनन्तभवकारकाः ॥२९ संत्यज्य सप्तप्रकृतीः भज दुःखविनाशकम् । दर्शनं स्वर्गसोपानं श्वनतिर्यकनिवारणम् ॥३० अष्टाङ्गसंयुतं येऽत्र भजन्ति दर्शनं शुभम् । शङ्कादिदोषनिर्मुक्तं ते वजन्ति परं पदम् ॥३१ अगानि यानि सन्त्यत्र दर्शने तानि भोः प्रभो । निरूपय ममाने हि कृपां कृत्वा तवाप्तये ॥३२ चलत्यचलमालेयं शीततां लभतेऽनलम् । देवात ज्ञानादिजं तस्वं न च श्रीजिनभाषितम् ॥३३ सूक्ष्मतत्त्वेषु धर्मेषु जिनेषु सन्मनौ शुभे । ज्ञाने संत्यज्यते शका या सा निःशकिता मता ॥३४ भयसप्तविनिर्मुक्तां कुदेवादिविजिताम् । निःशजकां कुरुते योऽसौ मुक्तिश्रीवशमानयेत् ॥३५ सौभाग्ये भोगसारे व स्वर्गे राज्यादिके बने। इच्छा संत्यज्यते धर्माद या सा नि:काक्षिता भवेत् ॥३६ का सांशयिक मिथ्यात्व है ॥२२-२३।। अज्ञान मिथ्यात्व म्लेच्छ आदि जोवोंके होता है, जो शून्यवादी हैं और जिनमें भक्ष्य अभक्ष्यका कुछ विचार नहीं होता ॥२४॥ यह पाँचों प्रकारका मिथ्यात्व पापोंको उत्पन्न करनेवाला है और बुद्धिके द्वारा स्वयं कल्पित किया हुआ है। इनके सिवाय अभिप्रायोंके भेदसे इस संसारमें और भी अनेक प्रकारका मिथ्यात्व समझ लेना चाहिये ॥२५॥ यह मिथ्यात्व मिथ्यात्वकर्मके उदयसे होता है । यह धर्मको नाश करनेवाला है। ज्ञान चारित्रको जडसे उखाड़ देनेवाला और अनेक पापोंका कारण है ॥२६॥ सम्यक्त्वप्रकृति सम्यग्दर्शनमें मल उत्पन्न कर देती है तथा यह जिनालय हमारा है, यह प्रतिमा हमारी है, यह दूसरेकी है, इस प्रकार हठ पूर्वक ममत्व उत्पन्न कर देती है ।।२७॥ सम्यमिथ्यात्व प्रकृति सब देवोंमें तथा सब धर्मों में समान परिणाम उत्पन्न कर देती है इसीलिये उसको मिश्र प्रकृति कहते हैं ॥२८॥ इसी प्रकार अनन्त संसारमें परिभ्रमण करानेवाले और पापोंके कारण ऐसे अनन्तानुबन्धी कषायके भी क्रोध मान माया लोभके भेदसे चार भेद होते हैं ॥२९॥ हे वत्स ! तू इन सातों प्रकृतियोंका त्याग कर और दुःखोंको दूर करनेवाले, स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करानेवाले तथा नरक और तिर्यञ्च गतिको रोकने वाले सम्यग्दर्शनको स्वीकार कर ॥३०॥ जो भव्य जीव शंका आदि दोषोंसे रहित और आठों अंगों सहित इस शुभरूप सम्यग्दर्शनको स्वीकार करते हैं वे अवश्य ही परम निर्वाण पदको प्राप्त करते हैं ॥३१॥ प्रश्न-हे प्रभो ! अब कृपाकर मेरे लिये सम्यग्दर्शनके अंगोंका निरूपण करिये, क्योंकि जान लेने पर ही वे स्वीकार किये जा सकते हैं ? ॥३२॥ उत्तर-चाहे पर्वतमाला चलायमान हो जाय और अग्नि शीतल हो जाय तथापि भगवान् सर्वज्ञदेवके कहे हुए तत्त्वोंमें कभी अंतर नहीं पड़ सकता। इसी प्रकार सूक्ष्म तत्वोंमें, धर्मके स्वरूपमें, अरहन्तदेवके स्वरूप में, श्रेष्ठ मुनियोंमें और शुभ ज्ञानमें शंकाका त्याग कर देना निश्चय हो जाना निःशंकित अंग कहलाता है ॥३३-३४॥ जिसे किसी प्रकारका भय नहीं है जिसने कुदेवादिकोंका सर्वथा त्याग कर दिया है और भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए तत्वोंमें किसी प्रकारकी शंका नहीं करता वह अवश्य ही मोक्ष लक्ष्मीको अपने वश कर लेता है ।।३५।। सौभाग्य प्राप्त होनेमें, धर्मके फलसे उत्तम भोगोंके मिलनेमें, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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