SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०९ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार मुक्तिसंगसमासक्ता ज्ञानचारित्रभूषिताः । मुनयो नैव वाञ्छन्ति शुभं संसारवर्द्धनात् ॥७६ जायते पुण्यपाकेन नाकलक्ष्मीः सुधीमताम् । भोगोपभोगसम्पन्ना सद्विमानाविसंयुता ॥७७ शुभोदयेन जायन्ते शक्रराजविभूतयः । अनेकदेवसम्पूर्णा दिव्यनार्योपलक्षिताः ॥७८ चक्रवादिदिव्यश्री लभन्ते धर्मिणः शुभात् । षट्खण्डानेकभूपालनारों रत्नाविशोभिताम् ॥७९ यस्य पुण्योदयो जातस्तस्य लक्ष्मीर्वशो भवेत् । धनधान्यादिसम्पूर्णा भुवनत्रयसंस्थिता ॥८० यत्किचिदुर्लभं लोके ऋद्धिसारमुखादिकम् । तत्सर्व जायते पुंसां पुण्यभाजां न संशयः ॥८१ सुखं पुण्योद्भवं ब्रूते सर्वज्ञो यदि कोऽपरः । प्रतिक्षणभवं शक्रतीर्थराजादिगोचरम् ॥८२ प्ररूपिताः समासेन पदार्था नव चागमात् । विशेषतो विनिश्चेयाः सम्यग्दर्शनधारिभिः ॥८३ तत्वश्रद्धानतो जीवाः प्राप्नुवन्ति सुखाकरम् । दर्शनं दोषशङ्कादिवजितं विमलात्मकम् ॥८४ परमगुणविचित्रैः सर्वलोकप्रदीपः, गतसकलविदोषैः तीर्थनाथैः प्रणीतम् । विबुधजनसुसेव्यं तत्वसारं विशालं, त्वमपि भज विशङ्खदर्शनं ज्ञानसिद्धये ॥८५ विशदगुणगरिष्ठं भिन्नभिन्नस्वभावं, जिनवरमुखजातं ग्रन्थितं ज्ञानवृद्धः । बहुनयशतकीर्णं दृष्टिरत्नादिबीजं, सकलपरमतत्त्वं मुक्तिहेतोभंज त्वम् ॥८६ इति श्रीभट्रारकसकलकीतिविरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे सप्ततत्त्वप्ररूपको नाम द्वितीयः परिच्छेदः ॥२॥ सुशोभित रहते हैं वे संसारको बढ़ानेवाले पुण्यकी कभी इच्छा नहीं करते ॥७६।। बुद्धिमानोंको पुण्यकर्मके उदयसे अनेक भोग उपभोगोंसे परिपूर्ण और अनेक ऋद्धि सिद्धियोंसे भरी हुई स्वर्गकी लक्ष्मी प्राप्त होती है ।।७७|| पुण्यकर्मके उदयसे इन्द्रकी विभूति प्राप्त होती है जिसमें अनेक देव सेवा करते हैं और अनेक सु-दर देवांगनाएँ प्राप्त होती हैं ॥७८।। धर्मके ही प्रभावसे चक्रवर्तीकी दिव्य लक्ष्मी प्राप्त होती है जिसमें छहों खंडोंके अनेक राजा आकर नमस्कार करते हैं और नारीरत्न आदि चौदह रत्न तथा नौ निधियोंसे जो सदा सुशोभित रहती है ।।७९।। इस संसारमें जिस जीवके पुण्य कर्मका उदय होता है उसके धन धान्य आदिसे परिपूर्ण और तीनों लोकोंमें रहनेवाली समस्त लक्ष्मी वश हो जाती है ।।८०॥ संसारमें जो कुछ दुर्लभ है, जो कुछ सारभूत ऋद्धियाँ हैं और जो कुछ सुख हैं वे सब मनुष्योंको पुण्य कर्मके ही उदयसे प्राप्त होते हैं इसमें कोई संदेह नहीं ॥८१।। इंद्रादिकको जो प्रतिक्षण नवीन नवीन सुख उत्पन्न होते हैं अथवा तीथंकरोंको जो गृहस्थ अवस्थामें सुख उत्पन्न होते हैं वे सब पुण्य कर्मके उदयसे ही होते हैं ऐसा श्री सर्वज्ञ देवने कहा है ।।८२॥ इस प्रकार आगमके अनुसार संक्षेपसे पदार्थोंका स्वरूप कहा। इनका विशेष वर्णन सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको अन्य ग्रंथोंसे जान लेना चाहिये ॥८३।। इन सातों तत्त्वोंका श्रद्धान करनेसे जीवोंको शंका आदि सब दोषोंसे रहित और सुखका निधि ऐसा निर्मल सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है ।।८४॥ हे भव्य जीव ! यह सम्यग्दर्शन समस्त तत्त्वोंका सारभूत है, अनेक देव इसकी सेवा करते हैं, यह अत्यंत विशाल है और अनंत ज्ञान आदि परम गुणोंसे पवित्र, समस्त लोक अलोकको प्रकाशित करनेवाले तथा समस्त दोषोंसे रहित ऐसे तीर्थंकर परमदेवने इसका वर्णन किया है। इसलिये सम्यम्ज्ञान प्रगट करनेके लिये तू भी शंका आदि सब दोषोंको छोड़कर इस सम्यग्दर्शनका सेवन कर इसको धारण कर ॥८५।। इन सब तत्त्वोंका स्वभाव भिन्न भिन्न है । ये सब तत्त्व अनेक २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy