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________________ २०८ श्रावकाचार-संग्रह कृपादिसहितं चित्तं धर्मध्यानादिवासितम् । प्राणिनां यद्भवेदेतत्सर्व पुण्याय जायते ॥६३ यदा चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु । महापुण्यं तदेव स्यात्तद्विना किं तपोऽखिलैः ॥६४ अनिष्टं यद्भवेत्स्वस्य परेषां क्रियते न तत् । एतत् पुण्यस्य मूलं स्यात् किं वृथा ब्रूयते तराम् ॥६५ रत्नत्रयादिभावेन श्रीजिनस्मरमेन च । निर्ग्रन्थभक्तितो भव्या लभन्ते पुण्यमद्भतम् ॥६६ देवशास्त्रगुरुसेवा संसारे नित्यभीरता। पुण्याय जायते पुसां सम्यक्त्ववद्धिनी क्रिया ॥६७ दैराग्यवासितं चित्तं ज्ञानाभ्यासादितत्परम् । सर्वतत्त्वदयोपेतं सूते पुण्यं शरीरिणाम् ॥६८ धर्मोपदेशसंयुक्तं वाक्यं भूतहितावहम् । विकथादिविनिर्मुक्तं भवेत्सत्पुण्यकर्मणे ॥६९ शुभाय संवृतं देहं भवेत्सौम्यं शरीरिणाम् । आसनादिसमायुक्तं स्थितं वा त्यक्तविक्रियम् ॥७० महापुण्यनिमित्तं हि महामन्त्रं जगुर्बुधाः । अनन्तपापसन्ताननाशकं गुरुनामजम् ॥७१ दृष्टिपूर्व मुनीनां च तपोज्ञानयमादिकम् । मुक्तेर्बीजं भवेदने साम्प्रतं पुण्यकर्मदम् ॥७२ दर्शनेन विना पुंसां दानवृत्तादिसेवनम् । पुण्याय न च मुक्त्यै हि भाषितं मुनिपुंगवः ॥७३ ज्ञानध्यानसुवृत्तादि सर्व दानादिकं तथा । आचारत्वं विमुक्त्यर्थं न च पुण्याय धान्यवत् ॥७४ मुक्त्यर्थं क्रियते किंचित्तपोदानयमादिकम् । महापुण्याय तत्संस्याच्चित्तशुद्धेन देहिनाम् ॥७५ जीवोंके लिये धर्मोपदेश देना, हृदयमें धर्मध्यानका चितवन रहना आदि सब प्राणियोंको पुण्य सम्पादन करनेवाले हैं ।।५८-६३।। जब यह मनुष्यका हृदय सब प्राणियोंके लिये दयासे द्रवीभूत होता है, दयासे पिघल जाता है तभी इस जीवको पुण्य होता है। बिना दयाके सब प्रकारके तप करनेसे भी कोई लाभ नहीं है ॥६४॥ व्यर्थ ही बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि अन्य जीवोंका अनिष्ट न करना ही पुण्यकी जड़ है ॥६५॥ भव्य जीव रत्नत्रयकी भावना करनेसे, भगवान् जिनेन्द्रदेवका स्मरण करनेसे और निग्रंथ मुनियोंकी भक्ति करनेसे ही अद्भुत पुण्य सम्पादन करते हैं ।।६६।। जीवोंको देव शास्त्र गुरुकी सेवाका भाव होना, सदा संसारसे भयभीत होकर संवेग धारण करना और सम्यग्दर्शनको बढ़ानेवाली क्रियाओंका होना पुण्यके लिए होते हैं ।।६७।। हृदयका वैराग्यसे भरपूर होना, ज्ञानके अभ्यास करने में सदा तत्पर रहना और सब जीवों पर दया धारण करना इन तीनों बातोंसे जीवोंको सदा पुण्य सम्पादन होता रहता है ।।६८॥ प्राणियों के हितकारक, धर्मके उपदेशसे संयुक्त और विकथाओंसे रहित वचन बोलना उत्तम पुण्य कर्मके उपार्जनके लिए होता है ।।६९।। सब तरहके विकारोंसे रहित, खड्गासन वा पद्मासन लगाकर बैठना, अपने शरीरको सौम्य और संवृत रीतिसे रखना भी मनुष्योंको पुण्य उत्पन्न करता है ॥७०|| पंच परमेष्ठीका वाचक जो णमो अरहंताण आदि महामंत्र है वह सबसे अधिक पुण्यका कारण है तथा वह अनन्त पापोंको नाश करनेवाला है ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं ॥७१॥ मुनिराज जो सम्यग्दर्शन पूर्वक तप करते हैं, ज्ञानका अभ्यास करते हैं, यम नियम आदिका पालन करते हैं वह सब आगेके लिये मोक्षका कारण है और वर्तमानमें अनेक प्रकारके पुण्य सम्पादन करनेवाला है ॥७२॥ विना सम्यग्दर्शनके दान देने व व्रत पालन करने आदिसे न तो पुण्य ही होता है और न मोक्ष ही प्राप्त होती है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥७३॥ हे भव्य जीव ! तू केवल मोक्षके लिये ज्ञानका अभ्यास कर, मोक्षके लिये ही ध्यान कर तथा पतोंका पालन व दान आदि सब मोक्षके लिये कर। केवल पुण्यके लिये मत कर ॥७४|| जो तप दान यम नियम आदि मोक्षके लिये किया जाता है उससे जीवोंको हृदय शुद्ध होनेसे महापुण्य उत्पन्न होता है ।।७५।। जो मुनिराज मोक्षकी प्राप्तिमें लगे रहते हैं और ज्ञान चारित्रसे सदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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