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________________ २०७ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार पापं शत्रु परं विद्धि महादुःखानलेन्धनम् । श्वभ्राविदुर्गतेर्बोज रोगक्लेशादिसागरम् ॥४९ यदा जीवस्य स्यात्पूर्वकृतं पापं च सन्मुखम् । तदा भोजनसद्वस्त्रधनं नश्येद् गृहादिकम् ॥५० यदि पापं भवेद् गुप्तं ततः सिद्धं समीहितम् । अन्यथा विफलः क्लेशस्तपोवृत्तश्रुतादिभिः ॥५१ ते बान्धवा महामित्रा धर्म वः कारयन्ति ये । धर्मविघ्नकरा ये च शत्रवस्ते न संशयाः ॥५२ ये तारयन्ति भव्यानां महापापाम्बुधौ च ते । धर्मोपदेशहस्ताभ्यां मनयः सन्ति बान्धवाः ॥५३ किमत्र बहुनोक्तेन यत्किचिद्धि विरूपकम् । दुःखदारिद्ररोगादि सर्व तत्पापजं भवेत् ॥५४ इति मत्वा त्वया धीमन् पापं त्याज्यं विवेकतः । यदि स्वमुक्तिसौख्यादौ वाञ्छा ते वर्तते परा ॥५५ अघस्य बीजभूतानि कारणानि फलानि च । वीरनाथो यदि ब्रूते वक्तुमन्यो न च प्रभुः ॥५६ एनःकारणभूतानि पूर्व प्रोक्तानि यानि च । विपरीतानि तान्येव सत्पुण्याय भवन्ति नुः ॥५७ क्षमादिवशधा धर्मो द्वादशैव व्रतानि च । उत्कृष्ट श्रावकाचारो द्वादशैव तपांसि च ॥५८ आहारादिचतुर्भेदं दानं सन्मनये वरम् । ज्ञानध्यानादिकाभ्यासः पूजनं श्रीजिनेशिनाम् ॥५९ सर्मिणां च सन्मानं सेवनं सद्गुरोः सदा । निर्मापणं जिनार्चायाः भवनानि चाप्यताम् ॥६० प्रतिष्ठा जिनबिम्बानां महाभ्युदयसाधिनी । अभिषेकोर्हन्मूर्तीनां महोत्सवपुरस्सरः ॥६१ अनुप्रेक्षादिकाचिन्ता प्रोद्यमस्तपस्यञ्जसा । सोपकारोन्यजीवस्य धर्माविकथनं नृणाम् ॥६२ पूष्टि करनेसे तथा सदा मिथ्या उपदेश देनेसे सबसे बड़ी कुटिलता प्रगट होती है अर्थात सबसे अधिक पाप होता है ॥४८॥ यह पाप जीवोंका सबसे बड़ा शत्रु है । अनेक बड़े बड़े दुःखरूपी अग्निके लिये इंधन हैं, नरक आदि दुर्गतियोंका कारण और रोग क्लेश आदिका महासागर है ।।४९।। जब इस जीवके पहिले किये हुए पाप सामने आते हैं अर्थात् वे उदयमें आकर अपना फल देते हैं तब भोजन, वस्त्र, धन, घर आदि सब नष्ट हो जाता है ॥५०॥ जब इस जीवके पाप रुक जाते हैंनष्ट हो जाते हैं तब इस जीवकी सब इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। यदि पाप न रुके हों-नष्ट न हुए हों तो फिर तप करना, चारित्र पालन करना, श्रुतज्ञानका बढ़ाना आदि सब व्यथं और क्लेश बढ़ानेवाला है ॥५१॥ संसारमें वे ही मित्र हैं और वे ही बन्ध हैं जो हम लोगोंसे धर्मसेवन कराते हैं । जो धर्म में विघ्न करनेवाले हैं वे शत्रु हैं इसमें कोई संदेह नहीं ॥५२।। जो मुनिराज इस महापापरूपी सागरमें पड़े हुए भव्य जीवोंको धर्मोपदेशरूपी दोनों हाथोंका सहारा देकर उस पापरूपी महासागरसे पार कर देते हैं वे ही इस जीवके सच्चे बान्धव हे ॥५३॥ बहुत कहनेसे क्या लाभ? थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि संसारमें जो कुछ बुरा है, दुःख है, दरिद्रता है, रोग आदि आधिव्याधि हैं वे सब पापसे ही उत्पन्न होती हैं ॥५४।। इसलिये हे धीमन् ! यदि तू स्वर्ग मोक्षके सुख चाहता है और दुःखोंसे बचना चाहता है तो बुद्धिपूर्वक पापोंका त्याग कर ॥५५।। इन पापोंके बोजभूत कारणोंको व फलोंको जब भगवान् वर्द्धमानस्वामीने कहा है फिर भला अन्य कौन कह सकता है ॥५६|| तथापि पापके कारण जो पहिले बतलाये हैं उनके प्रतिकूल कारण पुण्य सम्पादन करनेके लिये कहे जाते हैं ॥५७॥ उत्तम क्षमा आदि दश धर्म, बारह व्रत, उत्कृष्ट श्रावकाचारका पालन करना, बारह प्रकारका तप, श्रेष्ठ मुनियोंको आहार आदि चार प्रकारका दान देना, ज्ञान सम्पादन करना, ध्यान करना, भगवान् अरहंतदेवका पूजन करना, धर्मात्मा लोगोंका आदर सत्कार करना, गुरुकी सेवा करना, जिन प्रतिमाका बनवाना, अरहन्तदेवकी भावना करना, अनेक विभूतियोंकी देनेवाली जिनबिंबोंकी प्रतिष्ठा करना, बड़े भारी उत्सवके साथ अरहन्तदेवकी प्रतिमाका अभिषेक करना, बारह अनुप्रेक्षाओंका चितवन करना, तप करना, अपने आत्माका कल्याण करना, अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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