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________________ ( २३ ) २६८ २७० २७५ ग्यारहवाँ परिच्छेद २६५-२७४ श्रेयान्स जिनको नमस्कार कर सम्यग्दर्शनके २५ दोषोंका विस्तृत विवेचन ..."२६५-२६७ सम्यक्त्वके विना ज्ञान-चारित्रको निरर्थकता सम्यक्त्वकी महिमा २६८ सम्यक्त्वी श्रावक श्रेष्ठ है, पर सम्यक्त्व हीन साधु श्रेष्ठ नहीं २६९ सम्यक्त्वी दुर्गतियोंको नहीं पाता सम्यक्त्वी सुगतियोंको पाकर अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है २७२ सम्यक्त्वके अतिचार वर्णन कर उनके त्यागनेका उपदेश ર૭રે बारहवाँ परिच्छेद __ २७५-२९२ दर्शनिक श्रावकका स्वरूप अष्ट मूलगुणोंका वर्णन २७५ मद्यसेवनके दोषोंका वर्णन कर उसके त्यागका उपदेश २७५ मांस-भक्षणके दोपोंका वर्णन कर उसके त्यागका उपदेश २७६ मध-भक्षणके दोषोंका वर्णन कर उसके त्यागका उपदेश २७६ पंच उदुम्बर फलोंके भक्षण नहीं करनेका सहेतुक उपदेश २७७ सप्त व्यसनोंका निर्देश २७७ घू तव्यसनके दोष और युधिष्ठिरादिके उल्लेखपूर्वक उसके त्यागका उपदेश .... २७८ मांस-भक्षण व्यसनके दोष और बकराजाके उल्लेखपूर्वक उसके त्यागका उपदेश "" २७९ मद्य-पानके दोष और यादव-विनाशके उल्लेखपूर्वक उसके त्यागका उपदेश .... २७९ वेश्याव्यसनके दोष और चारुदत्तके उल्लेखपूर्वक उसके त्यागका उपदेश २७९ आखेट, चोरी, और परस्त्री सेवनके दोष और उनके सेवन करने वालोंके नामोल्लेख करके उनके त्यागका उपदेश अष्टमूल गुणका धारक और सप्त व्यसनका त्यागी सम्यग्दृष्टि ही दार्शनिक श्रावक है २८० व्रत प्रतिमान्तर्गत बारह व्रतोंके नाम २८० अहिंसाणुव्रतका स्वरूप और अहिंसाके गुण-गान जीवदयाके विना दान, ध्यान, व्रत-पालनादि सर्व व्यर्थ है दया-पालन ही सर्व धर्मोका सार है २८१ जीवधात प्राणी भव-भवमें रोगी, शोको, दीन, दरिद्री होता है २८२ देवतादिके उद्देशसे की गई हिंसा भी महापाप ही है २८३ जो हिंसासे धर्म कहते हैं वे धूर्त हैं इसलिए हे भव्य, तू हिंसाको छोड़कर अहिंसा धर्मको धारण कर २८३ जीव-रक्षार्थ गालित जलसे स्नान, वस्त्र-प्रक्षालन और खान-पान करने ..... का उपदेश २०४ २८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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