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________________ दूसरा परिच्छेद अजितं जिनमानम्य निजिताशेषविद्विषम् । सविशेषमतो वक्ष्ये शृणु धावकसद्वतम् ॥१ दर्शनं मूलमित्याहुजिनाः सर्ववतात्मनाम् । अधिष्ठानं यथा धाम्नस्तरूणां मूलमेव च ॥२ तस्मात्सद्दर्शनं सारं गृहीतव्यं विवेकिभिः । गृहस्थैर्येन जायन्ते व्रतान्यपि विमुक्तये ॥३ श्रद्धानं सप्ततत्त्वानां सम्यक्त्वं कथ्यते जिनैः । श्रद्धेयानि बुधैस्तानि पूर्व सद्दर्शनान्वितैः ॥४ भगवन् तत्त्वसद्भावं विस्तारं कारणं गुणान् । संख्याभेदास्तदर्थं च कथय त्वं ममावरात् ॥५ शृणु धीमन् महाभाग तत्त्वं त्वां कथयाम्यहम् । किंचिन्मेधानुसारेण चागमेनापि तत्वतः ॥६ जीवाजीवालवा बन्धः संवरो निर्जरा तथा। मोक्षः सप्तैव तत्वानि भाषितानि जिनागमे ॥७ जीवितोऽनादितो जीवो जीविष्यति पुनः पुनः । द्रव्यभावविभेदैश्च प्राणैः सौख्यं चलात्मनाम् ॥८ पंचैव चेन्द्रियप्राणाः कायवाकचित्तयोगतः । बलप्राणास्त्रिघायुश्च निःश्वासोच्छ्वास एव हि ॥९ उपयोगमयो जीवः शुद्धनिश्चतो भवेत् । व्यवहारेण मत्यादिज्ञानदर्शनगोचरः॥१० अमूर्तो निश्चयादगी भोक्ता कर्मादिकं न च । व्यवहारेण मूर्तोऽपि भोक्ता कर्मफलं भवेत् ॥११ अकर्ता कर्मनोकर्मरागद्वेषघटादिकान् । शुद्धद्रव्यायिकेनापि संसारे भ्रमणं न च ॥१२ अब मैं राग द्वेष आदि समस्त दोषोंको जोतने वाले भगवान् अजितनाथको नमस्कारकर श्रावकोंके व्रतोंको विशेष रीतिसे कहता हूँ सो हे भव्य ! तू सुन ॥१॥ जिस प्रकार वृक्षका आधार उसकी जड़ है उसी प्रकार समस्त व्रतोंकी जड़ सम्यग्दर्शन है। जिस प्रकार विना जड़के वृक्ष ठहर नहीं सकता उसी प्रकार विना सम्यग्दर्शनके कोई व्रत नहीं हो सकता ॥२॥ इसलिये विवेकी गृहस्थोंको सबसे पहिले सब व्रतोंका सारभूत सम्यग्दर्शन ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि सम्यग्दर्शनके साथ साथ होनेवाले व्रत ही समस्त पापोंको दूर कर सकते हैं अन्यथा नहीं ॥३॥ जीवादिक सातों तत्त्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। सम्यग्दर्शन धारण करनेवाले जीवोंको उन तत्त्वोंका ज्ञान अवश्य कर लेना चाहिये ॥४॥ प्र०-हे भगवन् ! वे तत्त्व कौन कौन हैं ? उनमें क्या क्या गुण हैं ? उनका स्वरूप क्या है ? उनके भेद कितने हैं ? आदि सब बातें विस्तारपूर्वक मेरे लिये कहिये ? उ०-हे बुद्धिमान् ! भाग्यवान ! सुन, मैं उन तत्त्वोंका स्वरूप आदि अपनी बुद्धि और आगमके अनुसार संक्षेपसे कहता हूँ॥५-६।। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व जैन शास्त्रोंमें बतलाये हैं ॥७॥ जो द्रव्य प्राण और भाव प्राणोंसे अनादि कालसे लेकर जीवित रहता है और आगे भी बार बार जीवेगा और ऐसा होने पर भी जिसका स्वरूप निश्चल है उसको जीव कहते हैं ।।दा द्रव्य प्राण दश है-पांच इंद्रियाँ, मन, वचन, शरीर ये तीन बल, आयु और श्वासोच्छवास । इनसे ही यह जीव जीवित रहता है। यदि शुद्ध निश्चयनयसे देखा जाय तो केवल उपयोगेमय जीव है। व्यवहार नयसे मत्स्यादि ज्ञान तथा चक्षु आदि दर्शनके गोचर हैं ॥९-१०॥ निश्चय नयसे अमूर्त है और कर्मादिकोंका भोक्ता नहीं है । व्यवहारनयसे मूर्त है और कर्मोंके सुख दुःख आदि फलोंका भोका है ॥११॥ शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे यह जीव न तो कर्म नोकर्मोंका कर्ता है न राग द्वेषोंका कर्ता है और न घट पट आदि पदार्थोका कर्ता है। शुद्ध गव्याथिकनयसे यह जीव संसारमें परिभ्रमण भी नहीं करता ॥१२॥ किन्तु व्यवहार नयसे यह जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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