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श्रावकाचार-संग्रह
कर्ता कर्मशरीरादिमोहद्व ेषपटादिकान् । व्रजनं दीर्घसंसारे व्यवहारनयात् पुनः ॥१३ कायप्रमाण आत्मायं समुद्घातं विना भवेत् । प्रदीप इव संकोच विस्तारो व्यवहारतः ॥ १४ लोकाकाशसमो जीवो निश्चयेन भवेत् सदा । मुक्तः पूर्वशरीरस्य किचिदूनाकृतिर्भवेत् ॥१५ द्विधा जीवा भवन्त्येव सिद्धा संसारिणः पुनः । जात्यादिभेदनिष्क्रान्ताः षड्धाः कर्मविचेष्टिताः ॥ १६ भूनोराग्निसमीराश्च नित्येतरनिगोतकाः । स्युः सप्त सप्त लक्षाणि दशैव तरुजातयः ॥१७ द्वित्रितुर्येन्द्रिया द्वौ द्वौ वै तिर्यक् सुरनारकाः । चतुर्लक्षा मनुष्याश्च चतुर्दशविभेदतः ॥ १८ चतुरशीतिलक्षाः स्युः योनयः श्रीजिनागमात् । आयुकायादिभेदेन ज्ञातव्या तत्त्वदर्शिभिः ॥१९ चतुर्दशगुणस्थानान् मार्गणादिषु प्रत्यहम् । जीवतत्त्वं च निश्चेयं बुधैर्दृष्टिविशुद्धये ॥२० अजीवः पञ्चधा ज्ञेयः पुद्गलस्तत्त्व शालिभिः । धर्मोऽधर्मो नभः कालः स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः ॥२१ स्पर्शादिगुणसंयुक्तः पुद्गलो बहुधा भवेत् । अणुस्कन्धा दिजैर्भेदैः सुखदुःखप्रदोङ्गिनाम् ॥२२ धर्मोऽसंख्य प्रदेशः स्याज्जीवपुद्गलयोर्गतौ । सहकारी विमूर्तश्च मत्स्यानामुदकं यथा ॥ २३
कर्म नोकर्म वा शरीर आदिका कर्ता है, मोह द्वेष आदिका कर्ता है और घट पट आदि पदार्थोंका भी कर्ता है तथा दीर्घ संसारमें परिभ्रमण भी करता है || १३ || इस आत्मामें दीपक के प्रकाशके समान संकोच और विस्तार होनेकी शक्ति है इसलिये व्यवहार नयसे यह जीव 'समुद्घात अवस्थाको छोड़कर कर्मोंके उदयके अनुसार प्राप्त हुए छोटे बड़े शरीर के प्रमाणके बराबर है- जब जितना बड़ा शरीर पाता है तब उतना ही बड़ा हो जाता है ||१४|| परंतु निश्चय नयसे लोकाकाशके समान असंख्यात प्रदेश वाला है । ( उन प्रदेशोंमें कभी हीनाधिकता नहीं होती ) जो जीव मुक्त
जाते हैं उनका आकार अंतिम शरीरसे कुछ कम होता है || १५ || जीव दो प्रकारके हैं-संसारी और सिद्ध । ( कर्म सहितको संसारी और कर्म रहितको सिद्ध कहते हैं । ) यदि जाति आदिका भेद न भी गिना जाय तो भी संसारी जीव छह प्रकार के हैं (स और पाँच प्रकारके स्थावर ) ||१६|| पृथ्वी कायिक जीवोंकी योनियाँ सात लाख हैं, जल कायिककी सात लाख, अग्निकायिककी सात लाख, वायु कायिककी सात लाख, नित्य निगोदकी सात लाख, इतर निगोदकी सात लाख, वनस्पतिकायिककी दश लाख, द्वीन्द्रिय जीवोंकी दो लाख, त्रीन्द्रिय जीवोंकी दो लाख, चोइन्द्रिय जीवोंकी दो लाख तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवोंकी चार लाख, देवोंकी चार लाख, नारकियों की चार लाख और मनुष्योंकी चौदह लाख इस प्रकार जैन शास्त्रोंमें जीवोंकी सब चौरासी लाख योनियाँ बतलाई हैं । तत्त्वोंके जानकार जीवोंको आयु काय आदिके भेदसे ये सब योनियाँ जान लेनी चाहिये ॥१७- १९ || जो चौदह गुणस्थान और चौदह मागंगाओंमें रहे वह भी संसारी जीव ही समझना चाहिये । इस प्रकार सम्यग्दर्शनको विशुद्ध करनेके लिये बुद्धिमानोंको जीव तत्त्व समझ लेना चाहिये ||२०|| तत्त्वोंके जानकार जीवोंको अजीव तत्त्वके पाँच भेद समझने चाहिये । धर्म, अधर्म, आकाश और काल चार तो ये हैं, ये चारों ही पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप हैं तथा पांचवां अजीव तत्त्व पुद्गल है उसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुण हैं और वह अणु स्कंध आदि भेदसे अनेक प्रकारका है। यह पुद्गल जीवोंको सुख दुःख भी देता है ।। २१-२२ ॥ धर्मं द्रव्य असंख्यात प्रदेशवाला है और अमूर्त है तथा जिस प्रकार मछलियोंके चलनेमें पानी सहायक होता है उसी प्रकार यह धर्मद्रव्य भी जीव और पुद्गलोंके गमन करने में सहायक होता है ||२३|| अधर्म
१. आत्माके प्रदेश शरीरमें रहते हुए भी शरीरके बाहर निकल जाते हैं उसको समुद्घात कहते हैं ।
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