SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार मंगलायं नमस्कृत्य देवसिद्धान्तसद्गुरुन् । वक्ष्ये प्रश्नोत्तरं प्रन्यं धर्मव्याजेन केवलम् ॥१० मतिश्रुतसमायुक्तः श्रावकाचारतत्परः । भवेधः श्रावको धोमान् संवेगादिगुणान्वितः ॥११ स पृच्छति गुरुं नत्वा रत्नत्रितयभूषितम् । सर्वसंगविनिर्मुक्तं निर्ग्रन्थं धमहेतवे ॥१२ अस्मिन्ननादिसंसारे निःसारे दुःखपूरिते। सारं किं भगवनद्य कृपां कृत्वा निरूपय ॥१३ चतुर्गतिमहावर्ते संसारे क्षारसागरे । मनुष्यं दुर्लभं विद्धि गुणोपेतं शरीरिणाम् ॥१४ मनुजत्वेऽपि कि सारं येन तत्सफलं भवेत् । तत्सवं श्रोतुमिच्छामि भवतः श्रीमुखावहम् ॥१५ सद्धर्मपरमं सारं संसाराम्बुधितारकम् । सुखाकरं जिनरुक्तं स्वर्गमुक्ति सुखप्रदम् ॥१६ एकभेदं द्विभेदं वा धर्म विमो वयं नहि । श्रुतं मया कुशास्त्रेषु नानाभेदैः प्ररूपितम् ॥१७ धर्म पापं प्रजल्पन्ति तत्त्वहोनाः कुदृष्टयः । वस्तुतत्त्वं न जानन्ति जात्यन्धा इव भास्करम् ॥१८ हेमादिकं यथा दक्षगृह्यते घर्षणादिभिः । तथा धर्मो गृहीतव्यः सुपरोक्ष्य विवेकिभिः ॥१९ यथा दुग्धं भवेन्नाम्ना श्वेतं च स्वादुनान्तरम् । महिष्यर्कप्रभेदेन तथा धर्म जगुर्बुधाः ॥२० यो रागद्वेषनिमुक्तः सर्वज्ञस्तेन भाषितः । धर्मः सत्यो हि नान्यैश्च रागद्वेषपरायणैः ॥२१ स धर्मो हि द्विधा प्रोक्तः सर्वज्ञेन जिनागमे । एकश्च श्रावकाचारो द्वितीयो मुनिगोचरः ॥२२ समस्त गणधरोंको मैं अपनी बुद्धि और ज्ञान बढानेके लिये नमस्कार करता हूँ॥९॥ इस प्रकार मंगल कामनाके लिये देव, सिद्धान्त और श्रेष्ठ गुरुओंको नमस्कारकर में केवल धर्मके बहानेसे प्रश्नोत्तर श्रावकाचार नामके ग्रन्थको कहता हूँ ॥१०॥ जो मतिज्ञान श्रुतज्ञान सहित है, श्रावकाचार पालन करनेमें तत्पर है, बुद्धिमान है और संवेग वैराग्यसे सुशोभित है उसको श्रावक कहते हैं ॥११॥ ऐसा कोई श्रावक केवल धर्मश्रवणकी इच्छासे रत्नत्रयसे सुशोभित और सब तरहके परिग्रहोंसे रहित ऐसे निग्रंथ गुरुको नमस्कारकर पूछने लगा ॥१२॥ प्रश्न हे भगवन् ! अनेक दुःखोंसे भरे हुए और असार ऐसे इस अनादि संसारमें क्या सार है सो कृपाकर आज मुझसे कहिये ? उत्तर-चारों गतिरूप बड़े-बड़े भंवरोंसे शोभायमान इस संसाररूपी क्षारसागरमें संसारी जीवोंको गुणोंसे सुशोभित मनुष्य जन्म प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ वा सार है ॥१३-१४॥ प्रश्न-हे भगवन् ! इस मनुष्य जन्ममें भो क्या सार है जिससे कि यह मनुष्य जन्म सफल हो सके ? मैं आपके श्रीमुखसे ये सब बात सुनना चाहता हूं। उ०—इस मनुष्य जन्ममें भी श्रेष्ठ धर्मका प्राप्त होना हो परम सार है। यह धर्म ही ससाररूपी समुद्रसे पार करनेवाला है, सुखका परम निधि है और स्वर्ग मोक्षके सुखोंको देनेवाला है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥१५-१६।। प्रश्न-हे देव ! वह धर्म एक ही प्रकारका है या दो प्रकारका है सो में कुछ नहीं जानता हूँ। मैंने तो अन्य शास्त्रोंमें अनेक प्रकारका धर्म सुना है ? उ०- जिस प्रकार जन्मांध पुरुष सूर्यको नहीं जानते उसी प्रकार मिथ्यादष्टि जीव पदार्थोके स्वरूपको नहीं पहिचानते। ऐसे तत्त्वहोन पुरुष पापको ही धर्म कह देते हैं। जिस प्रकार चतुर पुरुष सुवर्णादिकको घिस देखकर लेते हैं उसी प्रकार ज्ञानी जोवोंको परीक्षाकर धर्मको स्वीकार करना चाहिये ॥१७-१९।। जिस प्रकार भैसका दूध और आकका दूध दोनों ही नामसे दूध हैं तथा दोनों ही सफेद हैं तथापि उनके स्वादमें बड़ा भारी अंतर है, उसी प्रकार बुद्धिमान लोग धर्मके स्वरूपको भी अनेक प्रकारका बतलाते हैं ॥२०॥ जो रागद्वेष रहित हैं वे सर्वज्ञ कहलाते हैं, उन सर्वज्ञका कहा हुआ जो धर्म है वही धर्म कहलाता है। अन्य रागद्वेषसे परिपूर्ण लोगोंके द्वारा कहा हुआ धर्म कभी धर्म नहीं हो सकता ॥२१॥ श्री सर्वज्ञदेवने जैन शास्त्रोंमें वह धर्म दो प्रकारका बतलाया है -एक श्रावकोंके पालन करने योग्य श्रावकाचार और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy