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________________ आचार्य श्री सकलकीर्ति विरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचार प्रथम परिच्छेद जिनेशं वृषभं वन्दे वृषदं वृषनायकम् । वृषाय भुवनाधीशं वृषतीर्थं प्रवर्तकम् ॥१ मोहनिद्रातिरेकेण जगत्सुप्तं वचोंशुभिः । बोधितं शिरसा येन तस्मै वीराय नमः ॥२ द्वाविंशतिजिनान् शेषान् भव्यलोकसुखप्रदान् । वन्दे प्रारब्धसिद्धयर्थं धर्मसाम्राज्यनायकान् ॥ ३ अष्टकर्मविनिर्मुक्तान् गुणाष्टकविभूषितान् । लोकाग्रशिखरारूढान् सिद्धान् सिद्ध स्मराम्यम् ॥४ सूरयः पंचधाचारं स्वयमेवाचरन्ति ये । चारयन्ति विनेयानां तेषां पादौ नमाम्यहम् ॥५ अङ्गपूर्वप्रकीर्णानि ये पठन्ति सर्धार्मणाम् । पाठयन्ति सदा तेभ्यः पाठकेभ्यो नमोऽस्तु वै ॥६ त्रिकालयोगयुक्तानां मूलोत्तरगुणात्मनाम् । तपःश्रीसंगिनां पादौ साधूनां प्रणमाम्यहम् ॥७ वीतरागमुखोद्गीर्णामङ्गपूर्वादिविस्तृताम् । आराध्यां मुनिभिवंन्दे ब्राह्मों प्रज्ञाप्रसिद्धये ॥८ गीतमादिगणाधीशानङ्गपूर्वादिपारगान् । महाकवीनहं वंदे बुद्धिसंज्ञानहेतवे ॥९ जो तीनों लोकोंके स्वामी हैं, धर्मतीर्थको प्रवृत्ति करनेवाले हैं, धर्मके स्वामी हैं और धर्मको देनेवाले हैं ऐसे श्री वृषभदेव जिनेन्द्रदेवको मैं (श्री सकलकीर्ति आचार्य) धर्मके लिए नमस्कार करता हूँ ||१|| जिन्होंने अपने वचनरूपी किरणोंसे मोहरूपी नींदको दूरकर संसारको जगा दिया अर्थात् भव्य जीवोंका मोह दूरकर मोक्षमार्ग में लगा दिया ऐसे श्री वर्द्धमान स्वामीको मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ ||२|| मैं अपने प्रारम्भ किये हुए ग्रंथको पूर्ण करनेके लिये धर्मसाम्राज्य स्वामी और भव्य जीवोंको सुख देनेवाले ऐसे शेष बाईस तीर्थंकरोंको भी नमस्कार करता हूँ ||३|| जो ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंसे रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठों गुणोंसे सुशोभित हैं और लोकाकाशके शिखरपर विराजमान हैं ऐसे श्री सिद्ध भगवान्को में अपने कार्यकी सिद्धिके लिये नमस्कार करता हूँ ||४|| जो दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, वीर्याचार और तपाचार इन पांचों आचारोंको स्वयं पालन करते हैं और अपने शिष्योंको पालन कराते हैं, ऐसे आचार्यं परमेष्ठीके चरणकमलोंको मैं नमस्कार करता हूँ ||५|| जो अंगपूर्व और प्रकीर्णक शास्त्रोंको स्वयं पढ़ते हैं और अन्य धर्मात्माओंको पढ़ाते हैं ऐसे उपाध्याय परमेष्ठीको मैं नमस्कार करता हूँ ||६|| जो सबेरे दोपहर और शाम तीनों समय योग धारण करते हैं, मूलगुण और उत्तर गुणोंका पालन करते हैं तथा तप रूपी लक्ष्मीको सदा साथ रखते हैं अर्थात् सदा तपमें लीन रहते हैं ऐसे साधु परमेष्ठीके चरणकमलोंको मैं नमस्कार करता हूँ ||७|| जो वीतराग अरहंतदेव के मुखसे प्रगट हुई है, अंगपूर्व आदि अनेक रूपसे जो विस्तृत हुई है और मुनिलोग सदा जिसकी आराधना करते रहते हैं ऐसी सरस्वतीदेवीको मैं अपनी बुद्धिको प्रसिद्ध करनेके लिये नमस्कार करता हूँ ||८|| जो अंगपूर्व आदि श्रुतज्ञानके पारगामी हैं और महा कवि हैं ऐसे गौतम आदि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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