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________________ २०० श्रावकाचार-संबह एको हि देशतो धर्मः सुगमः श्रावकादिभिः । शक्यते कतुंमत्रेव गृहव्यापारमारितैः ॥२३ द्वितीयो मुनिभिः सक्यो धर्मो घोरपरोषहैः । गृहमोहादिसंत्यक्तान्योनैः कदाचन ॥२४ स्वामिन् तच्छावकाचारं कथय त्वं कृपाघीः । येनात्मा मे सुखो भूयात् श्रुतेन धर्मतत्परः ॥२५ एकाग्रचेतसा वत्स शृणु तत्कथयाम्यहम् । यत्प्रोक्तं जिननायेन सर्वमङ्गे हि सप्तमे ॥२६ अंग सारं विशालं प्रोपासकाध्ययनं जिनात् । अर्थमादाय संदृग्धं वृषभाख्यगणेशिना ॥२७ तस्य संख्या प्रवक्ष्यामि पदानि सकलानि स्युः । सप्ततिश्च सहस्राणि लक्षा ोकादशस्फुटाम् ॥२८ षोडशापि शतान्येव द्विसप्तदशकोटयः । लक्षास्त्र्यशीति सप्तसहस्राणि शताष्टकम् ॥२९ अष्टाशीतिश्च सद्वर्णाः प्रोक्ता एकपदस्य वै । सर्वसंख्या जिनेन्द्रेण ज्ञातव्या तत्त्वशिभिः ॥३० अजितादिजिनाधीशंधर्मतीर्थप्रवर्तकः । सर्वैरंग प्रणोतं तत् श्रावकाचारगोचरम् ॥३१ श्रीवीरस्वामिदेवेन गौतमेन गणेशिना । प्रोक्तमंगं महाग्रन्थं श्रावकस्य सुखाप्तये ॥३२ घोसुधर्ममुनीन्द्रेण चोक्तं श्रीजम्बुस्वामिना । केवलज्ञाननेत्रण जानं गार्हस्थ्यगोचरम् ॥३३ विष्ण्वादिमुनिभिः सर्वैः द्वादशांगश्रुतांतर्गः। प्रणोतं भव्यसत्त्वानामुपकाराय तत्कृतम् ॥३४ ततः कालादिदोषेण प्रायुर्मेधादिहानितः । होयते प्रांगपूर्वादिश्रुतं श्रोधर्मकारणम् ॥३५ ततः श्री कुन्दकुन्दाचार्यादिमुख्ययतीश्वराः । प्रकाशयन्ति संज्ञानं सद्गृहाधिष्ठितात्मनाम् ॥३६ क्रमातद्धि समायातं परिज्ञाय महाश्रुतम् । वक्ष्ये सद्धर्मबोजं हि ज्ञानं भव्यसुखप्रदम् ॥३७ दूसरा मुनियों के पालन करने योग्य यत्याचार ॥२२॥ उनमेंसे पहिला श्रावकाचार धर्म एक देशरूप है, सुगम है और उसे श्रावक लोग अपने घरके व्यापार आदि भारको चलाते हुए भी इस संसारमें अच्छी तरह पालन कर सकते हैं। दूसरे यत्याचार धर्मको घोर परोषहोंको सहन करनेवाले मुनिराज ही पालन कर सकते हैं। उसे अन्य दोन गृहस्थी मनुष्य कभी पालन नहीं कर सकते ॥२३-२४॥ प्रश्न हे स्वामिन् ! आप कृपाकर श्रावकाचारका वर्णन कीजिये जिसके सुननेसे मेरा आत्मा धर्म पालन करने में तत्पर हो और सुखी हो ॥२५॥ उ० हे वत्स ! तू चित्त लगाकर सुन । जो श्री जिनेन्द्रदेवने सातवें उपासकाध्ययन नामके अंगमें वर्णन किया है वह सब मैं कहता हूँ ॥२६॥ यह उपवासकाध्ययनांग बहुत बड़ा है और अंगोंमें सारभूत है। भगवान् वृषभदेवने जो अपनी दिव्यध्वनिमें कहा था उसका अर्थ लेकर श्री वृषभसेन गणधरने उसकी रचना की है ॥२७॥ उसके सब पदोंको संख्या ग्यारह लाख सात हजार है तथा एक एक पदमें सोलह सौ चौंतीस करोड (सोलह अरब चौतीस करोड) तेरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी वर्ण हैं ॥२८-३०॥ यह श्रावकाचार धर्म जैसा श्री वृषभदेवने निरूपण किया था वैसा ही अजितनाथ आदि सब तीथंकरोंने निरूपण किया था।३१।। श्रावकोंके सुखके लिये श्री वर्धमान स्वामीने भी निरूपण किया, और गौतम गणधरने भी निरूपण किया ॥३२॥ मुनिराज श्री सुधर्माचार्य ता श्री जम्बूस्वामोने अपने केवलज्ञानके द्वारा इस सब गृहस्थाचारका निरूपण किया ॥३३॥ इनके अनंतर भव्य जीवोंका उपकार करनेके लिये द्वादशांग श्रुतज्ञानको जानने वाले विष्णु आदि श्रुतकेवलियोंने भी इस अंगका निरूपण किया ॥३४॥ श्रुतकेवलियोंके बाद काल दोषसे मनुष्योंको आयु बुद्धि शरीर संहनन आदि घट जानेके कारण धर्मको स्थिर रखनेवाला अंम पूर्वोका ज्ञान भी कम हो गया ॥३५।। तब श्री कुंदकुंद आदि अनेक आचार्यों ने इस श्रावकाचारका वर्णन किया । इस प्रकार अनुक्रमसे जिनका वणन चला आया है ऐसे महाशास्त्रोंको जानकर धर्मके कारण भव्य जीवोंको सुख देनेवाले और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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