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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार नाभेयाद्यान्क्षुधापृष्ठपरीषहजये स्मर । तीवोपसर्गविजये शिवभूत्यादिकान्मुनीन् ॥१८० तार्णापूलमहापुञ्ज प्रोड्डायोपरिपातिते । पवनैः शिवभूतिः स्वं ध्यात्वाऽसीत्केवली द्रुतम् ॥१८१ श्रीवर्द्धनकुमाराविद्वात्रिंशत्पुरुषोघटा । ललिताद्याः सरित्यूरात्स्वं ध्यात्वा सुगति श्रिताः ॥१८२ मुनिर्गजकुमारोऽपि पञ्चकोलैः प्रकोलितः । विप्रमामेन साम्येन निश्चलो मुक्तिमोयवान् ॥१८३ न्यस्यारे धिया भोष्या ज्वलिता लोहशृङ्गलाः । कौन्तेया ध्यानतः सिखा द्विषद्भिः कोलिताघ्रयः ॥१८४ शिरीषपुष्पमृदङ्गो भक्ष्यमाणो बयातिगम् । शिवया सुकुमारोऽसूस्तत्याज समतां न हि ॥१८५ जननीचरया व्याघ्रया कोशलो द्वेषतो गिरौ । दशनैर्दश्यमानोऽपि ध्यानात्केवलमापिवान् ॥१८६ निःकारणं कृतैर्दुःखैः क्रुद्धभूतैस्तपस्विषु । भग्नेष्वितस्ततोऽमुञ्चत्प्राणान्विधुच्चरः शमी ॥१८७ व्यन्तर्याऽभयया शुद्धशोलो मुनिसुदर्शनः । कृतोपसर्गान्सोढ्वाऽभूदन्तकृत्केवलो तथा ॥१८८ इत्यचिनृपशुस्वर्युपसृष्टाऽक्लिष्टचेतसः । अन्येऽपि बहवो धीराः किलाथं स्वमसाधयन् ॥१८९ तत्क्षपकत्वमप्यङ्ग ! संलीय स्वात्मनि ध्र वम् । मुञ्चाङ्गमन्यथा नाना भवक्लेशान्सहिष्यसे ॥१९० शुद्धः स्वात्मैव चाऽऽदेयश्चिदानन्दमयो रुचिः । दृष्टिरित्याञ्जसो तस्य स्वानुभूत्या पुरादितः ॥१९१ तुम क्षुधा पिपासादि प्रधान परीषहोंको जीतना चाहते हो तो तब तो आदिजिनेन्द्र आदिका ध्यान करो ! और यदि तीव्र उपसर्गका जय करना चाहते हो तो शिवभूति आदि महामुनियोंका निरन्तर हृदयमें आराधन करो ॥१८०॥ पवनसे उड़ाया हुआ बहुत बड़ा तृण पूलोंका समूह शिवभूति मुनिके ऊपर गिरा तो भी वे अपने आत्माका ध्यान करके बहुत शीघ्र केवलज्ञानी हुए ॥१८१॥ श्रीवर्द्धनकुमार प्रभृति बत्तीस मुनियोंका समूह तथा ललितादि मुनि नदीके प्रवाहमें बहते हुए भी अपने आत्मध्यानसे सुगतिको प्राप्त हुए ॥१८२।। ब्राह्मण श्वसुरके द्वारा-पांच कोलों से प्रकीलित गजकुमार मुनिराज अपने अविचल साम्यभावसे मोक्षको प्राप्त हुए ॥१८३।। शत्रु लोगोंने ये भूषण हैं ऐसा कहकर जलती हुई लोहमयी श्रृंखलायें जिनके शरीरमें पहना दी तथा जिनके चरणोंको कील दिया तो भी पाण्डव लोग आत्मध्यानमें तत्पर होकर सिद्ध पदको प्राप्त हुए ॥१८४॥ शिरीषपुष्पके समान अतिशय कोमल अङ्गके धारक अवन्तिसुकुमारके शरीरको पूर्वजन्मके वैरानुबन्धसे शृगालीने निर्दयता पूर्वक भक्षण किया, तब उस धीरने अपने प्राणोंको छोड़ दिया परन्तु धैर्यको नहीं छोड़ा ॥१८५।। अहो ! देखो संसारकी लीला, जो पूर्व भवमें खास माता थी उसी माताने जननान्तरके द्वेषसे अपने दाँतोंसे अपने पुत्रका भक्षण किया, तो भी कोशल मुनिने अपने धैर्यको न छोड़ा और आत्मध्यानसे केवलज्ञानको प्राप्त हुए ॥१८६।। निष्प्रयोजन क्रोधाविष्ट व्यन्तरदेवादिके द्वारा दिये हुए दुःखोंसे तपस्वी लोगोंके इधर-उधर भागनेपर भी विद्युच्चरने आत्मध्यानमें लीन होकर प्राणोंको छोड़ा ॥१८७॥ अभयानाम व्यन्तरीके द्वारा किये हुए घोर उपसर्गोको सहन करके शुद्धस्वामी सुदर्शनमुनि अन्तकृत्केवली हुए ॥१८८।। इस प्रकार अचेतन, मनुष्य, पशु तथा देव आदिके द्वारा किये हुए उपसर्गोसे भी जिनका चित्त कभी विचलित नहीं हुआ है ऐसे और भी कितने धैर्यशाली महात्माओंने अपने आत्माकी साधना को है ॥१८९॥ हे क्षपक साधो ! अब तुम अपने आत्मामें लीन होकर इस शरीरको छोड़ो। यदि अब भी शरीरके छोड़नेमें प्रयत्नशील न होओगे तो तुम्हें अनेक प्रकार संसारमें दुःख सहन करना पड़ेंगे ॥१९०।। शुद्ध चिदानन्द स्वरूप अपना आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है इस प्रकारकी प्रीतिको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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