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________________ श्रावकाचार-संग्रह श्याहो! नरकं प्राप्तः शालिनिसदोषतः । मुनिनेति विबुध्येदं कार्य चित्तनिरोधनम् ॥१६८ बस्यानेके गुणाः सन्ति कृते चित्तनिरोधने। जलसेके तरोः पत्रशाखापुष्पफलानि वा ॥१६० श्रुतक्रीडावने स्वान्तमकटं रामयत्वतः । नियन्त्र्य चञ्चलं ज्ञानवैराग्यशृङ्खलेन वै ॥१७० श्रौतस्कन्धीयवाक्यं वा पदं वाऽक्षरमेव वा । यत्किञ्चित्स्वदते तत्रालम्ब्य चित्तं नय क्षयम् ॥१७१ श्रुतेन शुद्धमात्मानं स्वसंवित्या प्रगृह्य च । आराध्य तल्लयापास्तचिन्तो भूत्वा बजामृतम् ॥१७२ सन्न्यासः परमार्थेन निश्चयज्ञः स हि स्मृतः। विन्यासः स्वस्वरूपे यो विकल्पातीतयोगिनः ॥१७३ यदा परीषहः कश्चिदुपसर्गोऽयवा मनः । क्षिपेत्तस्य तदा ज्ञानसानिर्यापको हरेत् ॥१७४ नरकादिगतिष्वद्य यावत्तमोऽसुखाग्निभिः । त्वमङ्गसङ्गतः साषोऽविशन्नानामृताम्बुधौ ॥१७५ अपना समुपात्तात्मकायभेदस्य साधूमिः । भक्त्याऽनुगृह्यमाणस्य किं दुःखं प्रभवेत्तव ॥१७६ जहाः शरीरमारोप्य स्वस्मिन्दुःखं विदन्त्यहो । आत्मनस्तत्पृथक्कृत्य भेदज्ञा आसते सुखम् ॥१७७ पराधीनेन दुःखानि भृशं सोढानि जन्मनि । त्वयाऽद्यात्मवशः किञ्चिनिर्जरायै सहस्व भोः ॥१७८ स्वं ध्यायन्नात्तसन्न्यासो यावत्त्वं संस्तरे वसेः । क्षणे क्षणे प्रभूतानि तावत्कर्माणि निर्जरेः ॥१७९ जिसने सेनाके स्वामीको जीत लिया है समझो कि उसने सारी सेना ही जीत ली है ।।१६७।। अहो ! देखो इसो मनके दोषसे शालि नाम कोई मानव नरकमें गया । इस प्रकार मनके वश न करनेको हानिकारक समझकर साधु लोगोंको पहले अपना मन वश में करना चाहिये ॥१६८।। इस चित्तके रोकने (वश करने) पर मुनियोंको कितने ही गुण प्राप्त होते हैं । जिस प्रकार वृक्षका जल से सिंचन करनेसे उसमें पल्लव, शाखा, सुमन तथा फलादि समुद्भूत होते हैं ।।१६९।। अपने मन रूप चंचल बानरको ज्ञान तथा वैराग्य रूप श्रृंखला (सांकल) से बांधकर शास्त्र रूप केलि काननमें अच्छी तरह रमाना चाहिये ।।१७०॥ हे उपासक ! द्वादशाङ्ग शास्त्रके किसी एक वाक्यका अथवा नमस्कारादि महामन्त्र रूप पदका अथवा "ॐ" इस अक्षरका जो तुम्हें रुचिकर हो उसका अवलम्बन करके अपने मनको वश करो ॥१७१। हे क्षपक! पहले स्वसंवेदन (आत्मानुभव) से अपने आत्माका चित्स्वरूप निश्चय करके तथा श्रुतज्ञानसे वह रागद्वेषादिरहित है इस प्रकार भावनासे चिन्तारहित होकर मोक्षको प्राप्त होओ ॥१७॥ विकल्प-रहित योगीके अपने आत्मस्वभावमें लीन होनेको निश्चयके ज्ञाताजनोंने परमार्थसे संन्यास कहा है ॥१७३।। यदि किसी समय कोई परीषह अथवा उपसर्गादि उस समाधिशील साधुके मनको क्षोभित करें तो उस समय निर्यापकाचार्यको चाहिये कि ज्ञान सम्बन्धी वचनोंके द्वारा उसके परीषहादिको दूर करें ॥१७४॥ हे साधो ! इस शरीरके संसर्गसे ज्ञानरूप पीयूषपयोधिमें कभी प्रवेश न कर तुम केवल दुःखरूप अग्निसे आजतक नरकादि कुगतियोंमें संतप्त हुए हो ॥१७५।। इस समय तो तुम्हें आत्म तथा शरीरकी भिन्नता मालूम हो गई है तथा साधु लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारेपर अनुग्रह करते हैं तो क्या अब तुम्हें किसी तरहका दुःख हो सकता है ? कभी नहीं ॥१७६।। अहो ! यह कितने आश्चर्य की बात है कि मूर्ख लोग तो अपने आत्मामें शरीरका आरोप करके (शरीर ही को आत्मा समझ कर) दुःखको प्राप्त होते हैं और आत्मा तथा शरीरके भेदको जाननेवाले बुद्धिमान पुरुष अपने आत्मासे शरीरको भिन्न करके सुखको प्राप्त होते हैं ।।१७७|| हे साधो ! तुमने पराधीन अवस्थासे संसारमें अनेक दुःख सहे हैं इसलिये अब आत्मवशवर्ती होकर कर्मोंकी निर्जराके लिए इस समय मी कुछ दुःख सहन करो ॥१७८।। अपने आत्माका ध्यान करते हुए संन्यास पूर्वक जबतक तुम संस्तर (शय्या) पर रहोगे तबतक प्रतिक्षण प्रचुर कर्मनिर्जराको प्राप्त होते रहेंगे ॥१७९॥ यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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