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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार मनसा खण्डयन्शोलं वशास्यः प्रतिकेशवः । सीतामां लक्ष्मणान्मृत्वा बगाम वालुकाप्रमाम् ॥१५७ अन्येऽपि भूरिशो यत्र गृहस्थाश्च तपोषनाः । स्खलित्वा दुःखिनो जातास्तच्छीलं दृढमाचरेः ॥१५८ चेतनाऽचेतनाः सङ्गा बाह्याऽभ्यन्तरतो द्विधा । भ्रमतस्ते पुराऽभूवन ये से न जगत्वये ॥१५९ कूटेष्टस्य स्मरं स्मश्रुनवनीतस्य दुर्मृतिम् । मोपेक्षा त्वं कुरु ग्रन्थे मूच्छतो मनसः सवचित् ॥१६० क्रोधाद्याविष्टचित्तः प्राग्मुनिझैपायनाविकः । फलयोग्यं तपोवृक्ष भस्मसात्कृतवान्माणात् ॥१६१ कषायस्नेहवानात्मा कर्म बघ्नात्यनेकषा । स्निग्धो घटो रजोवा मत्तत्त्याज्यो यत्नतो हि सः ॥१६२ ज्वलन्तं संयमारामे कषायाग्नि शमाम्बुमिः । विध्यापय यशश्छाये निर्वाणकलवायके ॥१६३ स्पर्शाद गजो रसान्मीनो गन्धात्वचरणः क्षयम् । रूपान्मुषा पतङ्गोऽपात्सारङ्ग शब्बमोहितः॥१६४ एकैकविषयादेव दुःख्यभूसंवतो न कः । महानुभाव ! मत्वेति तवशं स्वं कुरुष्व मा ॥१६५ अनुकूले समुत्पन्ने तस्मिन् रागं विषेहि मा। प्रतिकूलेऽन्यथा भावमिति गोचरनिग्रहः ॥१६६ जयार्थो गोचराणां यः स जयेत्प्राग्निजं मनः । नायके हि जिते सर्वा पृतना विजिता भवेत् ॥१६७ केवल मनके संकल्प मात्रसे अपने ब्रह्मचर्यको जनकनन्दिनीके सम्बन्धमें खंडित कर और लक्ष्मणके द्वारा मृत्युको प्राप्त होकर तीसरे वालुकाप्रभानामक नरक में गया ॥१५७॥ और भी कितने गृहस्थ तथा तपस्वो (साधु) इस ब्रह्मचर्यसे च्युत होकर दुःखी हुए हैं, इसलिए इस ब्रह्मचर्य व्रतका अखण्डरीतिसे रक्षण करो !!! यही व्रत दुःखोंसे तुम्हें बचावेगा ॥१५८॥ बाह्य तथा आभ्यन्तर भेदसे दो प्रकार ये चैतन तथा अचेतन परिग्रह-इस संसारमें भ्रमण करते हुए तुम्हें पहले कभी प्राप्त न हुए हों ऐसा नहीं है किन्तु अवश्य कितनी ही बार प्राप्त हुए हैं ॥१५९॥ कूटेष्ट तथा स्मश्रनवनोत आदिको इसी परिग्रहके लोभसे खोटी मृत्युका स्मरण करते हुए तुम–परिग्रहमें मूर्छाको प्राप्त होनेवाले अपने मनकी उपेक्षा कभी मत करो (परिग्रहमें मनको आसक्त मत होने दो)। नहीं तो जिस प्रकार श्मश्रुनवनीत आदिकोंकी बुरी गति हुई है उसी प्रकार तुम्हें भी दुर्गतिका पात्र होना पड़ेगा ॥१६०।। क्रोध, मान, माया आदि कषायोंसे जिनका आत्मा आविष्ट था ऐसे द्वीपायनादि कितने ही मुनियोंने कल्याण रूप फलके देने योग्य अपने तपश्चरण वृक्षको क्षणमात्रमें क्रोधादि वह्निके द्वारा भस्मसात् कर दिया ॥१६॥ क्रोध मान माया लोभादि कषाय तथा अनुराग युक्त आत्मा नियमसे अनेक प्रकारका कर्म बन्ध करता है । जिस प्रकार. सचिक्कण घट (कलश) धूलीका बन्ध करता है (चिकने घड़ेपर धूल चिपक जाती है)। इसलिए प्रयत्नपूर्वक क्रोधादि छोड़ने योग्य हैं ॥१६२।। निखिल संसारमें कीतिका विस्तार होना हो जिसको छाया है तथा जो मोक्षरूप फलका देनेवाला है ऐसे संयम रूप उपवनमें जलती हुई कषाय वह्निको शान्त स्वभावरूप नीरसे बुझाओ ।।१६३।। स्पर्शन इन्द्रियके बशवर्ती होकर हाथी, रसना इन्द्रियके आधीन होकर मत्स्य, गन्धके वश होकर मधुकर (भ्रमर), नयन इन्द्रियकी आसक्तिसे पतंम तथा शब्दके श्रवणमें मोहित होकर मृग ये सब एक-एक इन्द्रियके वशवर्ती होकर नष्ट होते हैं ॥१६॥ इस संसारमें ऐसा कौन है जो इस प्रकार एक-एक विषयको वश वर्तितासे दुःखो न हुआ हो? इसलिए हे महानुभाव ! तुम्हें चाहिये कि-इन विषयोंके वश न होओ।।१६५।। अपने अनुकूल यदि तुम्हें कोई विषय प्राप्त होवे तो उसमें प्रीति मत करो तथा कोई बात प्रतिकूल (विरुद्ध) देखो तो उसमें द्वेष मत करो ! क्योंकि-इष्ट वस्तुमें अनुराग न करनेको तथा अनिष्ट वस्तुमें द्वेष न करनेको ही तो विषय जीतना कहते हैं ॥१६६।। जो लोग यह चाहते हैं कि हम पंचेन्द्रियों के विषयको जीते (अपने अधीन कर ले) उन्हें पहले अफ्ना भान वश करना चाहिये। क्योंकि २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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