SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९२ श्रावकाचार-संग्रह पञ्चधा वाचनामुख्यं स्वाध्यायं विदधन्मुनिः । सत्कालाधनाद्यष्टशुद्धया स्याद्वतपारगः ॥१४९ . खण्डपौस्त्रिभिः कुर्वन्स्वाध्यायं चात्मना कृतः। ऋषिनिन्दामजाड्योऽपि यमोऽभूत्सप्तऋद्धिभाक् ॥१५० स्तोकामपि त्वहिसां यः कुर्याद्दोदूयते न सः । रुजा यः किं पुनः सर्वा स सर्वा न रुजः क्षिपेत् ॥१५१ यमपालो हदे हिंसन्पर्वाहं महितोऽप्सुरैः। धर्माख्यस्तत्र मेषघ्नो भक्षितः शिशुमारकैः ॥१५२ ।। मा कृथाः कामधेनुं गामसत्यव्याघ्रसम्मुखीम् । स्तोकोप्यत्र मृषावादो नाना दुःखाय जायते ॥१५३ अजैोतव्यमति धान्यैस्त्रवार्षिकैरिति । वाच्यं छागैरिति परावाऽऽयान्निरयं वसुः ॥१५४ चुरांस्तान् तदभिध्यापि न कार्या जातुचित्त्वया।। गृह्णन्परस्वं तत्प्राणाञ्जिहीर्षन्हन्ति च स्वकम् ॥१५५ मुषित्वा निशि कौशाम्बों दिने पञ्चाग्निमाचरन् । परिव्राट शिक्यकारूढोऽधोऽगाद्दुम॒तेन॒पात् ॥१५६ प्रकारकी शुद्धि पूर्वक बाचना नाम स्वाध्यायको प्रधानतासे उपयोगमें लाकर पांच प्रकार स्वाध्याय करते हैं उन्हें ही व्रतके पारगामी समझना चाहिये ॥१४९|| मुनि लोगोंकी निन्दा करनेसे जिसे मूर्खता प्राप्त हुई ऐसा यम नामका कोई राजा-अपने बनाये हुए तीन खंडित श्लोकोंका ही स्वाध्याय करनेसे सप्तऋद्धिका उपभाग करनेवाला हुआ ॥१५०॥ अहो! जो पुरुष थोड़ा भी अहिमा व्रतका पालन करता है वह भी जब रोगसे पीड़ित नहीं होता है फिर जो सर्व प्रकार अहिंसा व्रतका दृढ़ता पूर्वक पालन करेगा वह सर्व पीड़ाओंका क्या नाश नहीं करेगा ? अवश्य करेगा ॥१५१।। किसी सरोवर में हिंसा न करनेवाला यमपाल तो जल देवताके द्वारा सत्कार किया गया और उसो जगह-बकरेका मारनेवाला धर्म नामका व्यक्ति मछलियोंके द्वारा खाया गया ॥१५२॥ हे भव्य ! तुम अपनी वाणीरूप कामधेनुको असत्यरूप व्याघ्रके सामने मत करो ! क्योकिथोड़ा भी झूठ बोलना इस संसार में अनेक प्रकारके दुःखोंका कारण होता है ।।१५३।। भावार्थकामधेनु मनोभिलषित वस्तुको देनेवाली होती है उसो प्रकार सत्य वाणोको भी कामधेनुके समान इच्छित वस्तुका देनेवाला समझकर उसे असत्य रूप सिंहके सामने कभी मत करो। (कभो झूठ मत बोलो) क्योंकि जिस प्रकार व्याघ्र गायको भक्षण कर लेता है उसी प्रकार तुम्हें सत्यवचन रूप कामधेनुका असत्यरूपी व्याघ्र घात कर डालेगा। पुनः इसी असत्यसे तुम्हें संसारमें अनेक प्रकार के दुःख देखने पड़ेंगे। पर्वत और नारदके विवाद में सत्यवादी महाराज वसु असत्यपक्षको अच्छा बताकर उसो समय नरक धाम सिधारे, यह कथा प्रसिद्ध है। उमीका सारांश इस श्लोकमें दर्शाया गया है-“अन" से हवन करना चाहिये इस स्थल में एकका तो कहना था कि अज (तीन वर्षक पुराने धान्य) से हवन करना चाहिये । इसपर पर्वतका कहना था--यह अर्थ ठीक नहीं है किन्तु अज (छाग-बकरे) से हवन करना चाहिये । नारद और पर्वतके इस विवादमें मध्यस्थ वसु भूपतिने कहा कि-"छागैर्वाच्यमिति" अर्थात्-बकरेको मारकर यज्ञ करना चाहिये । इस प्रकार अर्थको पलटनेसे वह उसी समय नरकवासो हुआ ॥१५४।। हे पुरुषोत्तम ! तुम्हें चोरोका चिन्तवनतक भो कभी नहीं करना चाहिये, क्योंकि-दूसरोंके धनको चुरानेवाला उसके प्राणोंके हरणको इच्छा करता हआ स्वतः अपना भी नाश कर लेता है ।।१५५।। कौशाम्बी नाम नगरीमें रात्रिके समय चोरी करके और दिनमें सीकेपर बैठकर पंचाग्नि तपश्चरण करनेवाला कोई संन्यासी साधु अपने पापके प्रकट हो जानेसे राजाके द्वारा शूली दिया जाकर नरक गया ॥१५६।। प्रतिनारायण रावण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy