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________________ १९१ धर्मसंग्रह-श्रावकाचार आत्मनो दर्शने दृष्टिाने ज्ञानं च योगिनः । स्वरूपाचरणे प्रोक्तं चारित्रं विश्वििभः ॥१३८ इत्येतदाऽऽत्मनो रूपं ध्यात्वा चान्तर्मुहूर्ततः । कर्माणि भस्मसात्कृत्य तदनुज्ञानभाग्नवेत् ।।१३९ तपः करोतु चारित्रं चिनोतु पठतु श्रुतम् । यावदायेन चात्मानं मोक्षस्तावन्न जायते ॥१४० तद्धयानं तु गहस्थानां जायते न कदाचन । शशानां शृङ्गवत्कच्छपानां सेमप्रचायवत् ॥१४१ अतस्तद्भावना कार्या परोक्षं धावकैः सदा । सिद्धौ यादृग्वसेत्सिद्धस्तादृक्कायेऽस्मि निर्मलः ॥१४२ सिद्धोऽहमस्मि शुद्धोऽहं ज्ञानादिगुणवानहम । काये वसनसंख्यातप्रदेशोहं निरञ्जनः ॥१४३ देहे वसंस्ततो भिन्नः काष्ठे वह्निरिवाऽनिशम् । सम्यगात्मनि संप्राप्ते क्षयं कर्तास्मि तस्य तु ॥१४४ इति भावनया चक्री राज्यं भुक्त्वा च मुक्तवान् । लोचानन्तरमेवाऽसौ केवलज्ञानमापिवान् ॥१४५ यथाऽहंदादयः पञ्च ध्येया धर्मादयस्तथा । चत्वारो देवताम्यस्तु नवम्यो मे नमः सदा ॥१४६ चत्वारो देवता एते जिनधर्मो जिनागमः । जिनचैत्यं जिनावास आराध्या सर्वदोत्तमैः ॥१४७ जिनादौ भक्तिरेकास्तु किमन्यैः संयमादिभिः। विघ्नानुच्छिद्य या दोग्धि सर्वान्कामानिहामुतः॥१४८ भिन्न आत्मा नहीं है किन्तु मेद विवक्षासे आत्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्रसे पृथक् है ॥१३७॥ अनिश्चय रत्नत्रयका स्वरूप कहते हैं-सर्वज्ञ भगवान्ने साधु पुरुषोंका-अपने आत्माके श्रद्धानको दर्शन, आत्माके ज्ञानको ज्ञान तथा आत्मामें आचरण करनेको चारित्र कहा है ॥१३८॥ इस प्रकार आत्माके रूपका ध्यान करके तथा अन्तर्मुहूर्त मात्रमें कर्मोको दग्ध करके तत्पश्चात् यह आत्मा केवलज्ञानका भोगनेवाला होता है ॥१३९|| चाहे तपश्चरण करो! चाहे व्रतादि धारण करो! चाहे शास्त्रोंका परिशीलन करो! किन्तु जब तक आत्माका ध्यान न किया जायगा तबतक मोक्षको प्राप्ति नहीं होगी ॥१४०॥ यह निरालम्ब ध्यान गृहस्थ लोगोंको कभी नहीं होता है। इसी बातको दृष्टान्तसे स्पष्ट करते हैं कि जिस प्रकार शशक (खरगोश) के शृंग नहीं होते हैं तथा कछुवोंके केश नहीं होते हैं उसी तरह यह शून्यध्यान भी गृहस्थोंके नहीं होता है ॥१४१।। इमलिए गृहस्थोंको परोक्षमें निरन्तर इस प्रकार चिन्तवन करना चाहिये कि-"मोक्ष स्थानमें जिस प्रकार कर्ममल-रहित शुद्ध सिद्ध भगवान् निवास करते हैं उसी प्रकार में भी इस शरीरमें उन्हींके समान निर्मल हूँ" ॥१४२।। मैं शरीरमें रहता हूँ तो भी-सिद्ध हूँ, शुद्ध (पवित्र) हूँ, ज्ञानादि गुणका धारक हूँ असंख्यात प्रदेशी हूँ तथा बंजन रहित हूँ॥१४३। जिस प्रकार काष्ठमें अग्नि पृथक् रहता है उसी प्रकार शरीरमें रहकर भी में उससे भिन्न हूँ और आत्मामें सम्यक्त्वकी प्राप्ति होनेपर शरीरका नाश करनेवाला भी हूँ॥१४। इस प्रकार आत्मभावनासे महाराज भरतचक्रवर्तीने राज्यका उपभोग करके उसे छोड़ दिया और केशलोंच करने के अनन्तर उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया ॥१४५।। जिस प्रकार पंच परमेष्ठो ध्यान करनेके योग्य हैं उसी प्रकार जिन धर्मादि चार और भी ध्याने योग्य हैं। इन नव ही देवताओंके लिए मेरा निरन्तर नमस्कार हो ॥१४६।। जिनधर्म, जिनागम (जेनशास्त्र), जनप्रतिमा तथा जिनालय ये चार देवता हैं। बुद्धिमानोंको-निरन्तर इनका आराधन करना चाहिये ॥१४७।। अहो! पंच परमेष्ठीमें एक अविचल भक्ति होना ही अच्छा है और संयमादिसे विशेष क्या साध्य है ? क्योंकि एक भक्ति हो ऐसी है जो सर्व विघ्नोंका नाश करके इह लोक तथा परलोकमें मनोऽभिलषित वस्तुओंकी देनेवाली है ।।१४८॥ जो मुनि-शास्त्रोचित समयमें 'अध्ययन करना' आदि बाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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