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________________ १९० श्रावकाचार-संग्रह अर्हत्सिद्धौ समाराध्यौ तेषु पञ्चसु भेदतः । सदाप्तत्वं यदापन्नौ निरावरणबोधिनौ ॥१२८ तत्राऽपि भेदतः सिद्धः समाराध्यो विशेषतः । नित्यत्वान्निष्कलत्वाच्च सर्वकर्मक्षयत्वतः ॥१२९ ध्यानं यदहंदादीनां सालम्बं तन्निगद्यते । सरागषिगृहस्थानां साधनं तस्य दर्शितम् ॥ १३० कदाचिद्वीतरागाणां दुर्ध्यानापोहनाय वै । सालम्बं तत्स्मृतं ध्यानं गौणत्वेन शुभाश्रवात् ॥१३१ आद्यसंहनतोपेता निःकषाया जितेन्द्रियाः । रागद्वेषविनिर्मुक्ताः परीषहभटाजिताः ॥१३२ पर्यङ्काद्या नाभ्यस्तास्तन्द्रनिद्राविर्वाजिताः । इत्यादिगुणसम्पन्ना योगिनो ध्यानसिद्धये ॥ १३३ धारणा यत्र काचिन्न न मन्त्रपदचिन्तनम् । मनःसङ्कल्पनं नास्ति तद्वयानं गतलम्वनम् ॥१३४ आत्मानमात्मनात्मानं निरुध्यात्मस्थितो मुनिः । कृतात्मात्मगतं ध्यायेत्तन्निरालम्बमुच्यते ॥१३५ गते मनोविकल्पेऽस्य यो भावः कोऽपि जायते । स एवाऽऽत्मस्वतत्त्वं च शून्यध्यानं च तन्मतम् ॥१३६ अभेद एक एवाऽऽत्मा भेदे च त्रितयात्मकः । दर्शनज्ञानचारित्रं दाहकादित्रिधाग्निवत् ॥१३७ ऊपर जो हम पञ्चपरमेष्ठीके पाँच विकल्प कर आये हैं उनमें अरहन्त तथा सिद्धजिन निरन्तर आराधन करनेके योग्य हैं। क्योंकि ये दोनों आप्तत्व ( देवत्व ) स्वरूपके धारक हैं। तथा ज्ञानावरणादि कर्मोंके आवरणसे रहित हैं और सर्वज्ञ (त्रिभुवनवर्ती समस्त वस्तुओंको एक समयमें जाननेवाले, हैं ॥१२८॥ अरहन्त तथा सिद्ध में भी विशेषपने सिद्ध भगवान् समाराधन करने योग्य हैं क्योंकि — सिद्धभगवान् नित्य हैं अविकल हैं तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय आदि आठ कर्मोंको क्षय कर चुके हैं || १२९|| इन अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओंका जो ध्यान करना है उसे सालम्बध्यान कहते हैं । वह सालम्ब ध्यान सराग मुनि तथा गृहस्थोंके साधन करने योग्य है ॥ १३० ॥ यदि किसी समय वीतरागी मुनियोंके भी आ रौद्रादि दुर्ध्यान होने लगे तो उसके नाश करनेके अर्थ यह सालम्ब ( अर्हन्तादिका स्मरण रूप ) ध्यान --- शुभ (पुण्य) कर्मके आश्रयका हेतु होनेसे गौणरूपसे माना गया है ॥ १३१ ॥ वज्रवृषभनाराच संहनननके धारक; क्रोध मान माया लोभादि कषायोंसे विनिर्मुक्त, इन्द्रियोंके जीतनेवाले, राग तथा द्वेषरहित, परीपह रूप भट पुरुषोंके वश न होनेवाले ( परीषहोंके जोतनेवाले), पद्मासन तथा खड्गासन आदि ध्यानासनोंके जाननेवाले, आलस्य तथा निद्राके अधीन न होनेवाले इत्यादि उत्तम गुणोंसे शोभमान साधु लोग ही ध्यानकी सिद्धिके लिए योग्य हैं ।। १३२ - १३३ ।। जिस ध्यानमें न तो किसी प्रकारकी धारणा है न किसी प्रकारके मन्त्रादिका चिन्तवन है और न मनका संकल्प है उसे आलम्ब - रहित (निरालम्ब) ध्यान कहते हैं ।। १३४|| अपने स्वभावमें स्थिर जो साधु आत्माको आत्मा के द्वारा रोकते हैं तथा आत्माको आत्मामें लगाकर ध्यान करते हैं उसे भी निरालम्ब ध्यान कहते हैं ||१३५|| मनका विकल्प मिट जानेपर साधु पुरुषोंका जो अवर्णनीय भाव होता है उसे आत्माका स्वतत्त्व कहते हैं तथा उसे ही शून्यध्यान भी कहते हैं | | १३६|| अभेद विवक्षसे यह आत्मा एक ही है और भेद विवक्षासे दर्शन ज्ञान तथा चारित्र इन भेदोंसे त्रितयात्मक है । इसी बात को दृष्टान्त द्वारा स्फुट करते हैं । यदि वास्तवमें विचारा जाय तो दाहात्मक शक्ति अग्निसे भिन्न नहीं है । जो अग्नि है वही दाह है और जो दाह है वही अग्नि है । परन्तु भेद विवक्षाको लेकर "वह्निर्दहति दाहाऽऽत्मशक्तया" अर्थात् — अग्नि अपनी दाह शक्तिसे जलाती है ऐसा प्रयोग होता है । उसी प्रकार आत्मा अभेद विवक्षासे दर्शन ज्ञान तथा चारित्र रूप है इनसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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