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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार १८९ एकादशाङ्गसत्पूर्वचतुर्दशश्रुतं पठन् । व्याकुर्वन्पाठयनन्यानुपाध्यायो गुणाप्रणीः ॥११८ दर्शनज्ञानचारित्रत्रिकं भेदेतरात्मकम् । यथावत्साधयन्साधुरेकान्तपदमाश्रितः ॥११९ भजनीया इमे सद्भिः सम्यक्त्वगुणसिद्धये । स्नानपूजनसद्धयानजपस्तोत्रसदुत्सवैः ॥१२० भव्यः पञ्चपदं मन्त्रं सर्वावस्थासु संस्मरन् । अनेकजन्मजैः पानिःसन्देहं विमुच्यते ॥१२१ एकद्वयचतुःपञ्चषट्षोडशसदक्षरैः । स पञ्चत्रिंशतावर्णाक्यमन्त्र जपेद् व्रती ॥१२२ पापोऽपि यत्र तन्मन्त्रं प्रान्ते ध्यायन्सुरो भवेत् । तत्र सम्यक्त्वपूतात्मा सदा ध्यायन्न किं जनः ॥१२३ चौरो रूपखुरो नाम शूलारूढोऽपि तत्पदम् । जिनदासोपदेशेन ध्यात्वा दैवी गति ययौ ॥१२४ दत्तं नागश्रिया मन्त्रं मातङ्गचरकुक्कुरः । समादायाऽभवन्नागदेवः स्वाम्युपकारकृत् ॥१२५ गोपो विवेकहीनोऽपि पठनपञ्च नमस्कृतीः । जातः सुदर्शनश्रेष्ठी चम्पायां यः सुदर्शनः ॥१२६ सिद्धाः सेत्स्यन्ति सिद्धयन्ति ये केचिदिह जन्तवः । सर्वे ते तत्पदं ध्यात्वा रहस्यमिति सूत्रजम् ॥१२७ होते हैं वे आचार्य कहे जाते हैं ॥११७।। जो गुणश्रेष्ठ साधु स्वयं एकादशांग शास्त्र तथा चर्तुदृश पूर्व शास्त्रोंको पढ़ते हैं, व्याख्यान करते हैं तथा अन्य शिष्यवर्गको पढ़ाते हैं वे परमेष्ठी हैं ॥११८॥ जो भेदात्मक और अभेदात्मक सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रका यथावत् साधन करनेवाले हैं तथा विजनप्रदेशमें निवेश करनेवाले हैं उन्हें साधु (मुनि) कहते हैं ॥११९।। शिवसुखाभिलाषो पुरुषोंको-इन अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओंकी अभिषेकसे, पूजनसे, ध्यानसे, जपसे, स्तुतिसे तथा उत्तम उत्सव-महोत्सवादिसे सेवा (पूजन) करनी चाहिये ॥१२०।। जो धर्मात्मा भव्यपुरुष सभी अवस्थाओंमें सदा “णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं" इस पंच महामन्त्र पदोंका चिन्तवन करते रहते हैं वे भव्यात्मा निःसन्देह अनेक जन्ममें उपार्जन किये हुए पापकर्मोंसे विमुक्त हो जाते हैं ॥ २१॥ व्रती पुरुषोंको-एकाक्षरका (ॐ), दो अक्षरोंका (सिद्ध, असा, ॐ ह्रीं , चार अक्षरोंका (अरहन्त, असिसाहू), पांच अक्षरोंका (असिआउसा), छह अक्षरोंका (अरहन्त सिद्धा, अरहन्तसिसा, ॐ नमः सिद्धेभ्यः), सोलह अक्षरोंका (अरहन्त सिद्ध आयरिया उवज्झाया साह) पैंतीस अक्षरोंका (णमो अरहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं) इस प्रकार मन्त्रोंका जप करना चाहिये ॥१२२।। अहो ! जिस महामन्त्रका मरण समयमें स्मरण करनेसे पापी पुरुष भी देव होता है तो उसी मंत्रराजके ध्यानसे सम्यक्त्व विशुद्ध मानस क्या देव पर्यायको नहीं प्राप्त होगा ? निःसन्देह होगा ॥१२३॥ इसी महामंत्रका जिनदास श्रावकके उपदेशसे शूलीके ऊपर चढ़ा हुआ रूपखुर नामका चौर भी ध्यान करके देवगतिको प्राप्त हुआ ॥१२४।। पूर्व कालमें किसी चण्डालका पाला हुआ श्वान नागश्रीके द्वारा सुने हुए इसी महामन्त्रका चिन्तवन करके अपने स्वामीका उपकार करनेवाला नागदेव हुआ था ॥१२५॥ ज्ञानहीन गुवाल भी इसी पंचनमस्कार महामंत्रके स्मरण करनेसे चम्पापुरीमें सुदर्शन नामका सेठ हुआ था। अहो ! वास्तवमें वह सुदर्शन (देखने में सुन्दर) था ।।१२६।। अधिक कहाँतक कहें किन्तु यों समझिये कि -इस संसार में जितने आत्मा पूर्व समयमें सिद्धावस्थाको प्राप्त हुए हैं, आगामो कालमें होंगे तथा वर्तमान समयमें होनेवाले हैं वे सब इसी पंचत्रिशताक्षरात्मक महामंत्रराजके ध्यान करनेसे हए है. होंगे तथा होनेवाले हैं । इस मंत्रके विषयमें विशेष क्या कहा जाय ? यह जिनसूत्रका रहस्य है, ॥१२७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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