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________________ १८८ श्रावकाचारसंग्रह अतिमिण्यात्विनः पापा मद्यमांसातिलोलपाः। नाराध्या न विराध्यास्ते मध्यस्थमिति भाव्यते ॥१०६ जीवास्तु द्विविधा ज्ञेया मुक्ताः संसारिणोऽपरे । आद्या नित्यचिदानन्दाः सम्पक्त्वादिगुणैर्युताः ॥१०७ अन्ये नारकतिर्यक्त्वनरदेवभवोद्भवाः । एतेषां योनिभेदास्तु लक्षाश्चतुरशीतिकाः ॥१०८ नारकाणां चतुर्लक्षास्तिरश्चां द्वयधिषष्टिकाः । नृणां चतुर्दश प्रोक्ताश्चतुर्लक्षाः सुधासिनाम् ॥१०९ नित्येतरनिगोताग्निपृथ्वीवार्वायुकाङ्गिनाम् । प्रत्येक सप्तसप्तता वृक्षाणां दशलक्षकाः ॥११० षड्लक्षा विकलाक्षाणां पञ्चाक्षाणां चतसृकाः । एवमेकत्र निद्दिष्टा लक्षा द्वाषष्टि योनयः ॥१११ अशुद्धनिश्चयेनैते चेद्रागादिमयाः खलु । तथापि शुद्धद्रव्येण मुक्तवद्गुणिनोऽखिलाः ॥११२ अतो ज्ञानमयत्वात्ते समाराध्याः किलाङ्गिनः । भेदेन तेषु पञ्चैव परमेष्ठिन उत्तमाः ॥११३ परमेऽत्युत्तमे स्थाने तिष्ठन्ति परमेष्ठिनः । ते चाहत्सिद्ध आचार्यः पाठकः साधुराख्यया ॥११४ स्वभावज्ञानजा मर्त्यविहिताऽतिशयान्वितः । प्रातिहायँरनन्तादिचतुष्केन युतो जिनः ॥११५' सिद्धः कर्माष्टनिर्मुक्तः सम्यक्त्वाद्यष्टसद्गुणः । जगत्पुरुषमूर्वस्थः सदानन्दो निरञ्जनः ॥११६ आचाराद्या गुणा अष्टौ तपो द्वादशधा दश । स्थितिकल्पः षडावश्यमाचार्योऽमीभिरन्वितः ॥११७ कारुण्यभाव भी रखना चाहिये ।।१०५॥ जो लोग महामिथ्यात्वी हैं तथा जो मदिरा मांसादि अपवित्र पदार्थों में अत्यन्त लोलुप हैं ऐसे लोगोंकी न तो स्तुति करनी चाहिये और न उनसे विरोध ही करना चाहिये। इसे माध्यस्थ भाव कहते हैं। यह सदा भावने योग्य है ॥१०६॥ मुक्त जीव तथा संसारी जीव इस प्रकार जीवोंके दो भेद हैं। उनमें मुक्तजीव नित्य चिदानन्द स्वरूप तथा सम्यक्त्वादि आठ गुणोंसे विभूषित हैं ॥१०७|| संसारी जीव नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देव इस प्रकार चार भेद रूप हैं। इनके योनि भेद चौरासी लाख होते हैं ॥१०८।। नारकी जीवोंके चार लाख, तिर्यञ्चोंके बासठ लाख, मनुष्योंके चौदह लाख तथा देवोंके चार लाख इस प्रकार सामान्यसे चौरासी लाख योनि भेद हैं ।।१०९॥ नित्यनिगोद सात लाख, इतरनिगोद सात लाख, अग्निकाय सात लाख, पृथ्वीकाय सात लाख, जलकाय सात लाख, वायुकाय सात लाख तथा वनस्पतिकाय दस लाख ये सब मिलाकर बावन लाख हुए ॥११०॥ तथा विकलेन्द्रियों (द्वीन्द्रिय त्रोन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रियों) के छह लाख और पञ्चेन्द्रियोंके चार लाख इस प्रकार ये सब मिलाकर (तिर्यञ्चों) के बासठ लाख भेद होते हैं ॥१११।। अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे ये सब जोव रागादि स्वरूप हैं । परन्तु शुद्धद्रव्याथिक नयकी अपेक्षासे सिद्धभगवान्के समान ही गुणी समझना चा हये ॥११२।। ये सब जीव ज्ञान स्वरूप हैं इसलिए तो सब ही आराधन करनेके योग्य हैं। परन्तु इनमें भेद करने से तो फिर पञ्चपरमेष्ठी ही उत्तम समझना चाहिये ॥११३॥ अब परमेष्ठी शब्दकी व्याकरण शास्त्रके अनुसार व्युत्पत्ति बताते हैं-परम अत्युत्तम स्थानमें जो रहनेवाले हैं उन्हें परमेष्ठी कहते हैं वे अर्हन्त सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु नामसे प्रसिद्ध हैं ॥११४॥ दश, स्वभावसे (जन्मसे) उत्पन्न होनेवाले, दश, केवल ज्ञानके समयमें होनेवाले, चतुर्दश, देवताओंके द्वारा होनेवाले, आठ प्रातिहार्य तथा चार अनन्तज्ञान अनन्तदर्शनादि, इस प्रकार छयालीस अतिशयोंसे जो विभूषित हैं उन्हें अर्हन्त कहते हैं ॥११५।। ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंसे रहित, सम्यक्त्वादि आठ गुणोंसे विराजमान, लोकाकाशके ऊपर स्थित, सतत आनन्द मंडित तथा निरंजन (कर्ममलादि रहित) ऐसे सिद्ध भगवान् हैं ॥११६।। दर्शनाचार, ज्ञानाचारादि पंच आंचार, तीन गुप्ति, बारह प्रकार तपका स्थिति कल्प, आचेलक्यादि दश प्रकार तथा छह आवश्यक कर्म इन छत्तोस गुणोंके जो धारक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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