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________________ १९६ श्रावकाचार-संबह पृथक्त्वेनानुभवनं संवित्तत्रैव तृप्तितः । अतीवान्तलयं प्राप्ते स्थितिश्चर्यात्मनो मता ॥१९२ भेदरलात्रयाधीनस्वात्मानं विद्धि तन्मयम् । परमं तफ्नोयं वा स्निग्धत्वादिगुणान्वितम् ॥१९३ अल्पशोऽपि परद्रव्ये वाञ्छां विनिवार्य श्रुतपरः शश्वत्। स्वात्मानं प्रतपसि निरन्तरं तपसि ततपसि ॥१९४ निराशत्वात्तनैः सङ्गघलब्धसाम्यसहायकः । निर्विकल्पसमाधिस्थः पिबाऽमोदामृतं स्थिरः ॥१९५ संन्यस्येति कषायवद्वपुरिदं निष्णातसूरेविधा त्यस्तात्मा यतिराट्तदीयमुररीकुर्वश्व लिङ्गं परम् । सहग्बोधचरित्रभावनमयो मुक्तः समोहाकरो हित्वासून् गुरुपञ्चकस्मृतिशिवो स्यादष्टमे जन्मनि ॥१९६ सम्यग्दर्शनबोधवृत्ततपसां संभाव्य चाराधनां बाह्याम्यन्तरसङ्गभङ्गकरणादुत्कृष्ट बाराधकः । क्षिप्त्वा मोहरजोन्तरायकरिपून्ध्यानेन शुक्लेन वै प्राप्याहन्त्यमनुत्तरं शिवपदं याति ध्रुवं तद्भवे ॥१९७ प्रान्ते चाराध्य कश्चिद्विधिवदुरुबलः साधुसिंहोऽप्रमत्तस्तत्त्वश्रद्धानबोधाविरतिपरिहतीसत्तपोभिश्चतुर्धा। कृत्वा पापस्य रोधं गलनमपि शुभध्यानयोगाद्विहाय प्राणान्सथिसिद्धि यति सुखमयों मध्यमः सिद्धिकामः ॥१९८ सम्यग्दर्शन कहते हैं । उसा आत्माका अपने आत्मानुभवसे शरीरादि वस्तुओंसे भिन्न अनुभव करनेको सम्यग्ज्ञान कहते हैं, तथा उसी आत्मामें-अत्यन्त वैराग्यसे अन्तःकरणके लीन होने पर जो आत्माको स्थिति है यही सम्यक् चारित्र है, इस अभेद रत्नत्रयकी भावना करो ॥१९१-१९२॥ हे उपासक! भेदरूपसे रत्नत्रयाधीन अपने आत्माको भी रत्नत्रयस्वरूप ही समझो। क्योंकिसुवण यद्यपि स्निग्धगुण तथा पीतगुणसे भेदरूप है, तो भी वास्तवमें अभिन्न ही है। उसी तरह आत्माको भी समझो ॥१९३।। हे पुरुषोत्तम ! श्रुत ज्ञानमें श्रद्धाको दृढ़ करके शरीरादि पर वस्तुओंमें थोड़ी सी अभिलाषाको घटाकर जब तुम अपने आत्मामें निरन्तर तपश्चरण करोगे तभी वास्तव में तपश्चरण करनेवाले होओगे ॥१९४॥ निरभिलाषासे प्राप्त हुए निर्ग्रन्थव्रतसे अधिगत समताभाव जिनका सहायक है ऐसे तुम निर्विकल्पसमाधिमें स्थित होकर आनन्दरूप अमतका पान करो ॥१९५॥ क्रोधादि कषायोंके समान शरीरको भो कृश करके जिसने अपने आत्माको संसारसे पार करनेवाले निर्यापकाचार्यके आधीन कर दिया है, जिसने दिगम्बरलिङ्गको धारण किया है, जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रके चिन्तवनमें समासक्त है तथा जिसे मोक्षमें जानेकी अभिलाषा है वह मुनि पञ्चपरमेष्ठीके स्मरण पूर्वक प्राणोंको छोड़ कर अधिकसे अधिक आठ जन्ममें अवश्य ही मोक्षको प्राप्त होता है ॥१९६।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र तथा सम्यक्तपकी आराधनाका आराधन करके, बाह्य तथा आभ्यन्तर परिग्रहको दूर करनेसे उत्कृष्ट बाराधक वह मुनिराषमोहनीय रज अर्थात् ज्ञानावरण-दर्शनावरण और अन्तराय कर्मशत्रोंका शुक्लध्यानके द्वारा नाश करके तथा निरुपम अर्हन्त पदको प्राप्त होकर नियमसे उसो भवमें शिवसद्यका वासी होता है ।।१९७॥ मृत्युके समयमें शास्त्रानुसार आराधन करके-अत्यन्त शक्तिशाली, सावधान, तथा मनोभिलषित सिद्धिकी अभिलाषा करनेवाला वह मध्यम बाराधक साधु केशरी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा सम्यक्तप इन चार प्रकारको बाराषनासे पापका निरोघ तथा नाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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