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________________ ( २१ ) गुरुको आत्मसमर्पण कर महाव्रत अंगीकार करनेका विधान निक्षेपकाचार्य द्वारा आराधकको सम्बोधन सल्लेखनाके अतिचार बताकर उनके त्यागनेका उपदेश भक्त दानादिका त्यागकर आत्मस्थ होने और परीषह उपसर्गादिके सहन करनेका उपदेश गुरुद्वारा बारह भावनाओंका वर्णन करते हुए आराधकको सावधान रखनेका निर्देश धर्मभावनाके अन्तर्गत जीवकी अशुद्ध और शुद्ध अवस्थाका वर्णन पंच परमेष्ठीका स्वरूप वर्णनकर उनके स्मरणका उपदेश नमस्कार मन्त्रका महात्म्य वर्णनकर उसे जपनेका उपदेश ध्यानका वर्णनकर निर्विकल्प ध्यानमें निरत्व रहनेका उपदेश हिंसादि-पाप करनेवालोंके दृष्टान्त देकर उनसे निवृत्तिका उपदेश नानाप्रकारके उपसर्ग और परीषह सहन करने वालों के देकर उन्हें शान्तिसे सहन करनेका उपदेश सल्लेखनाका उपसंहार और फल वर्णन उदाहरण १२ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार प्रथम परिच्छेद मंगलाचरण, वृषभादि २४ तीर्थंकरों सिद्धों गणधरों और ब्राह्मीदेवीको नमस्कार संवेगादिगुण-भूषित श्रावक द्वारा प्रश्न- भगवन्, इस असार संसारमें क्या सार है ? गुरु द्वारा उत्तर- मनुष्य भव पुनः प्रश्न -- मनुष्य भवमें भी क्या सार है ? उत्तर- - धर्म पुनः प्रश्न - धर्मका क्या स्वरूप है ? क्योंकि मैंने नाना लोगोंसे नाना प्रकारके शास्त्रोंमें उसका विभिन्न स्वरूप सुना है। गुरु द्वारा जिनेन्द्र-देव- प्ररूपित सत्यधर्मका प्रतिपादन शिष्य- द्वारा श्रावकधर्मके जानने की इच्छा और गुरु द्वारा उसका प्रतिपादन भ० ऋषभदेव द्वारा प्ररूपित और पश्चाद्वर्ती शेष तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट तथा आचार्य - परम्परागत धर्मकी महत्ता बतलाते हुए श्रावक धर्मकी पूर्व भूमिका कथन दूसरा परिच्छेद अजित जिनको नमस्कारकर सम्यग्दर्शन और उसके विषयभूत सप्ततत्त्वों और षद्रव्योंका विस्तृत विवेचन पुण्य-पापका विस्तृत वर्णन Jain Education International For Private & Personal Use Only .... १८३ १८३ १८४ १८५ १८६-१८७ १८८ १८८ १८९ १९० १९२ १९४ १९७ १९८-४३६ १९८-२०२ १९८ १२९ १९९ १९९ १९९ २०० २०१ २०३ - २०९ २०३ - २०५ २०६ www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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