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________________ १८६ श्रावकार-संग्रह मिथ्यात्वं भावयन्संघ श्रीभूयो बौद्धरोपितम् । धनदत्तसदस्याशु स्फुटिताऽक्षोऽपतद्भवे ॥८४ सम्यक्त्वसुहृदा यन्न प्राणिनो दीयते सुखम् । अघोमध्योद्धर्वभागेषु नास्ति नासीन्न भावि तत् ॥८५ हासितोत्कृष्टश्वभ्राऽऽयुः श्रेणिकः प्रथमाऽवनेः । निर्गत्य दृग्विशुध्यैव तोर्थंकर्त्ता भविष्यति ॥८६ अनित्यावृतिसंसारंकत्वान्यत्वाशुचित्वतः । आश्रवः संवरो निर्जरा लोको धर्मदुलभौ ॥८७ द्वादशैता अनित्याद्या भावनाः प्रागभावितः । भावयेद्भाविताः प्राच्यैर्मनः कपिवशीकृतौ ॥८८ जीवितं शरदब्दाभं धनमिन्द्रधनुनिभम् । कायश्च संततापायः कोपेक्षामुत्र साधने ॥८९ वने मृगार्भकस्यैव व्याघ्राऽऽप्रातस्य कोपि न । शरणं मरणे जन्तोर्मुक्त्वैकं घर्ममार्हतम् ॥९० न तद्द्रव्यं न तत्क्षेत्रं न स कालो भवो न सः । भावश्च भ्रमताऽनेन लात्वा मुक्तं मुहुनं यत् ॥९१ एकः स्वर्गे सुखं भुङ्क्ते दुःखं चैको भुवस्तले । मध्येऽपि तद्वयं चैको न कोप्यन्यः सखात्मनः ॥९२ चेतनादात्मनो यत्र वपुभिन्नं जडात्मकम् । तत्र तज्जादयः किं न भिन्नाः स्युः कर्मयोगजाः ॥९३ रेतःशोणितसंभूते वर्च्चःकृमिकुलाऽऽकुले । चर्मावृते शिरानद्धे नृदेहे का सतां रतिः ॥९४ संसार में ऐसा कोई दुःख नहीं है, न हुआ और न कभी होगा, जो मिथ्यात्वशत्रुके द्वारा न दिया जाता हो ॥८३॥ देखो - बौद्धगुरुके उपदेशसे बन्दक नाम कोई मानव मिथ्यात्वका चिन्तवन करता हुआ - धनदत्तको सभामें अन्धा होकर संसार समुद्रमें गिरा ॥८४॥ पाताललोक मध्यलोक तथा ऊर्वलोक में ऐसा कोई सुख नहीं है, न हुआ तथा न कभी आगामी होगा जो सुख इस आत्माको सम्यक्त्व रूप मित्रके प्रभावसे प्राप्त न होता हो ॥ ८५ ॥ संसारमें ऐसा तो कोई दुःख नहीं है जो मिथ्यात्वके सेवन से न भोगना पड़ता हो तथा ऐसा कोई सुख भी नहीं है जो सम्यक्त्वके सेवनसे न मिलता हो । इसलिए अब हे साधो, तुम मिथ्यात्वको छोड़कर सम्यक्त्वको ही धारण करो । देखो ! इसी सम्यक्त्वके प्रभावसे महाराज श्रेणिकने सप्तम नरकको उत्कृष्ट स्थितिको घटाकर न्यून कर दी तथा इसी सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिसे प्रथम नरकसे निकलकर आगे त्रिभुवन महनीय तीर्थंकरका अवतार धारण करेंगे ||८६|| अपने मनरूपी बन्दरको यदि तुम वश करनेकी अभिलाषा रखते हो तो — पूर्वकालमें घर्मात्मा पुरुषोंने जिन्हें चिन्तवन किया है तथा पहिले जिनकी तुमने भावना नहीं की है, ऐसी अनित्य, मशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आश्रव, संवर, निर्जरा, लोक, धर्म तथा बोधि दुर्लभ ये जो द्वादश भावनाएं हैं इनका निरन्तर हृदयमें आराधन करो ||८७-८८॥ यह जीवन शरत्कालीन मेघके समान क्षणनश्वर है, धन इन्द्रधनुषके समान अवलोकन करते-करते नाश होनेवाला है तथा यह शरीर भी निरन्तर विनाश युक्त है इस प्रकार अपने लोचनोंके सामने सर्व वस्तुओंको विनश्वर देखनेपर भी परलोक साधनमें क्या उपेक्षा करनी चाहिये ||८९ || जिस प्रकार निर्जन अरण्य में सिंहके पंजे में फंसे हुए मृगशावकको बचानेके लिए कोई समर्थ नहीं है । उसी प्रकार इस जीवको यमराजके पंजे में फंस जानेपर जिन धर्मको छोड़कर कोई शरण नहीं है ॥९०॥ न तो वह द्रव्य है न वह क्षेत्र है न वह काल है न वह भव है तथा न भाव है जिसे - असार संसारमें भ्रमण करते हुए इस आत्माने बार-बार ग्रहण करके न छोड़ा हो ॥९१॥ एक तो स्वर्गमें सुखका उपभोग करता है और एक पृथ्वीतल (नरक) में निरन्तर दुःखों को भोगता है तथा मध्यलोकमें सुख तथा दुःख ये दोनों ही हैं परन्तु इस आत्माका तो दोनोंमेंसे कोई भी मित्र नहीं है ॥९२॥ चेतन स्वभाव आत्मासे जड़ स्वरूप यह शरीर ही जब भिन्न है तो उस शरीरके सम्बन्धसे तथा कर्मके परिपाकसे होनेवाले ये मित्र पुत्र कलत्रादि क्या भिन्न नहीं हैं अर्थात् अवश्य भिन्न हैं ॥९३॥ वीर्य तथा शोणित (रक्त) से उत्पन्न होनेवाला, विष्टा तथा कोड़ों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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