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धर्मसंग्रह श्रावकाचर
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शय्यादी कुत्रचित्प्रीतिविशेषे मा सज स्मृतिम् । भावितो विषयैः प्राणी भ्रंशं भ्राम्यति जन्मनि ॥७२ एतत्फलेन राजा स्यां स्वर्गी स्यां भोगवानपि । निदानं मा कुरुष्वेति निदानं विपदां ध्रुवम् ॥७३ दुःखं स्याद्वा सुखं स्याद्वा मरणं स्यात्समाधिना । विना येनेन्द्रियं सौख्यमप्यभूदुःखदं मम ॥७४ इति भावनया चैतदतिचारगणातिगाम् । साधुः सल्लेखनां कुर्यान्निर्मला सुखसिद्धये ॥७५ इति वृत्त शिवारत्नं जातसंस्कारमुद्धरन् । तीक्ष्णपानक्रमत्यागादयं प्राये प्रवेक्ष्यति ॥७६ सङ्घाय तु निवेद्यंवं गणिना चतुरेक्षिणा । सोऽनुज्ञातः समाहारमाजन्म त्यजतात्त्रिधा ॥७७ रुजाद्यपेक्षया वाऽम्भः सत्समाधी विकल्पयेत् । मुञ्चेत्तदपि चासन्नमृत्युः शक्तिक्षये भृशम् ॥७८ तदा सङ्घोऽखिलो र्वाणमुख ग्राहितसत्क्षमः । तदविघ्नसमाध्यर्थं दद्यादेकां तनूत्सृतिम् ॥७९ सन्न्यासनस्ततः कर्णे दद्युनियपका जपम् । संसारभीतिदं जैनैस्तर्पयन्तो वचोऽमृतेः ॥८० मिथ्यात्वं त्यज सम्यक्त्वं भज भावय भावनाः । भक्ति कुरु जिनाद्येषु त्रिशुद्धचा ज्ञानमाविश ॥८१ व्रतानि रक्ष कोषादीञ्जय यंत्रय खान्यहो । परिषहोपसर्गांश्च सहस्व स्मर चात्मनः ॥८२ तदुःखं नास्ति लोकेस्मिन्नाभून्न च भविष्यति । मिथ्यात्ववैरिणा यन्न दीयते भवसंकटे ॥८३
अपनी स्मृतिको मत लगाओ, क्योंकि इन विषयोंके सम्बन्धसे ही तो यह अनुपम शक्तिशाली आत्मा संसारमें भ्रमण करता है ॥७२॥ हे सहनशील ! इस समाधिके प्रभावसे मैं राजा होऊं, देव बनूँ, भोगवान होऊ - विपत्तिकेन्द्र ऐसे निदानको कभी भूलके भी न करो ||७३ || हे उपासक ! इस सल्लेखनासे दुःख हो, सुख हो, अथवा मरण हो मुझे सब स्वीकार है, क्योंकि – जिसके न होनेसे इन्द्रिय सम्बन्धी सुख भी मेरे लिए दुःखके समान है ऐसी भावना करो ||७४ || इस प्रकार पवित्र भावनासे अतिचार - रहित निर्मल सल्लेखना शिवसुखकी सिद्धिके अर्थ साधु पुरुषको धारण करनी चाहिये || ७५ || इस प्रकार अभ्याससे उत्कर्षशाली अथवा सर्व व्रतमें उत्तम इस सल्लेखना काधारक यह श्रावक क्रमसे खरपान छोड़कर चार प्रकार आहारका त्याग करेगा । विचारशील निर्यापकाचार्यसे इस प्रकार कहलाकर और फिर उनकी आज्ञानुसार सर्व प्रकारके आहारका मन वचन तथा कायसे त्याग करना चाहिये ||७६-७७॥ पित्तकोप, उष्णकाल, जलरहित प्रदेश तथा जिसकी पित्तप्रकृति हो इत्यादि कारणोंमेंसे किसी एक भी कारणके होनेपर निर्धापकाचार्य को समाधिमरणके समय जल पीनेकी आज्ञा उसके लिए देनी चाहिये तथा शक्तिका अत्यन्त क्षय होने पर तथा निकट मृत्यु जानकर धर्मात्मा श्रावकको फिर जलका भी त्याग कर देना चाहिये ॥७८॥ | उस समय सर्वसंघको चाहिये कि उस ब्रह्मचारी श्रावकके मुखसे "तुमने जो हमारा अपराध किया है उसके लिए मैं क्षमा करता हूं और जो मैंने तुम्हारा अपराध किया है उसके लिए तुम भी मेरे ऊपर क्षमा करो !!" ऐसा कहलवाकर उसकी समाधि " सल्लेखना" में किसी तरहका विघ्न न आवे इसलिये उसे तथा सर्वसंघको कायोत्सर्ग करना चाहिये ||७९ || इसके पश्चात् निर्यापकाचार्य को चाहिये कि - सल्लेखनाधारी पुरुषके कान में संसारसे भय उत्पन्न करानेवाले नमस्कार मंत्रादि का निरन्तर श्रवण कराते रहें तथा जिन वचनामृतोंसे उसे तृप्त करते रहें ॥८०॥ हे जितेन्द्रिय ! अब तुम मिथ्यात्वको छोड़ो ! सम्यक्त्वका आश्रय करो ! अनित्य शरणादि बारह प्रकारकी भावनाओंका चिन्तवन करो ! जिन भगवान्, आचार्य, उपाध्याय आदिमें मन वचन कायसे भक्ति करो तथा अपने आत्मज्ञानमें प्रवेश करो ॥ ८१ ॥ धारण किये हुए व्रतकी रक्षा करो ! क्रोधादिक पापोंका विजय करो ! पञ्चेन्द्रियोंको वश करो ! परीषह तथा उपसर्गादिको धैर्यपूर्वक सहन करो ! तथा अपने आत्माका चिन्तवन करो ॥८२॥ अहो ! जीवन ग्रहणकी परम्परासे पूर्ण इस अपार
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