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________________ भावकाचार संग्रह पुद्गलोऽन्योऽहमन्यच्च सर्वथेति विचिन्तय । प्रन्यद्रव्यग्रहावेशं येनोज्झित्वा स्वमाविशेः ॥६२ क्वचिचेत्पुले सक्तो म्रियेथास्तं चरेदधुवम् । तत्रैवोत्पद्य सौवर्णचिभिटासक्तसाधुवत् ॥६३ किन्त्वङ्गस्योपयोग्पन्नं तद्गृह्णातीदमाशु न । तत्तृष्णां त्यज भिन्धि स्वं कायाद्रुन्द्ध शुभाश्रवम् ॥६४ वितृष्णं क्षपकं कृत्वा सूरिरेतदवचोऽमृतैः । पोषयेत्स्निग्धपानेन परित्याज्याऽशनं क्रमात् ॥६५ पोढा पानं घनं लेपि सिक्थवत्सेतरं तथा । प्रयोज्य कृशयित्वा च शुद्धपानं च पूरयेत् ॥६६ आधी ! सल्लेखना तेऽन्त्या सेयं तमिति शिक्षयेत् । व्यतिक्रमपिशाचेभ्यः संरक्षनां सुदुर्लभाम् ॥६७ शंसा जीवितं मृत्यो मित्ररागं सुखस्पृहाम् । निदानं संस्तराऽऽरूढस्त्यजन्सल्लेखनां चरेत् ॥६८ पर्यायांसजन्नस्यां मा शंस प्राणितं स्थिरम् । बहिर्द्रव्यं वरं भ्रान्त्या को हास्यो नायुराशिषा ॥ ६९ क्षुदादिभयतस्तूर्णं माकार्षी मरणे धियम् । दुःखं सोढा शमाप्नोति मुमूर्षुर्दुः खमश्नुते ॥७० रजःक्रीडावता साकं मास्त्वं मित्रेण रञ्जय । मोहदुश्चेष्टितै भुंक्ते रतावृक्षैरलं बहु ॥७१ १८४. ही हूँ इस प्रकार विचारते रहो ! और इसी पवित्र विचारसे पुद्गलादि द्रव्यके ग्रहणके आवेशको छोड़कर अपने आत्मद्रव्य में प्रवेश करो ||६२ || यदि किसी पुद्गलमें आसक्त होकर मरे तो नियमसे उसी जगह उत्पन्न होकर संचार करेंगे जिस तरह मृत्यु समय एक साधु चिरभटी (ककड़ी) में आसक्त होकर उसीमें कीड़ा हुआ था || ६३॥ किन्तु यदि तुम यह समझो कि अब यह ( आत्मा ) शरीरकी स्थितिका कारण अन्न नहीं ग्रहण करता है तो उसी समय तृष्णाको छोड़ो ! शरीरसे अपने आत्मद्रव्यको भिन्न करो ! तथा पापबन्धके कारण खोटे आश्रवको रोको | | ६४ || आचार्य महाराजको चाहिये - :- इस प्रकार सुमधुर अपने वचनामृत से उस क्षपक ( मुनि) वेषधारीको तृष्णारहित करके तथा धीरे-धीरे भोजन घटाकर स्निग्ध वस्तुओं से पोषण करे || ६५ || घनपान (दही आदि ), अघनपान (फल-रस, कांजी आदि), लेपिपान ( जो हाथमें चिपकता हो), अलेपिपान ( जो हाथमें नहीं चिपकता हो ), सिक्थपान अन्नकण युक्त मांड आदि, असिक्थपान अन्नकण - रहित मांड इन छह प्रकार पेय पदार्थका प्रयोग करके और फिर क्रमसे एक-एक घटाकर केवल जलपान कराना चाहिये ||६६ || हे साधु ! तुम्हारे लिए यह अन्तिम सल्लेखना है अतिशय दुर्लभतासे प्राप्त हुई है । इसलिए इसकी अतीचार रूप पिशाचसे रक्षा करो, इस प्रकार उपदेश देना चाहिये ||६७|| संस्तर ( शय्या) पर सोये हुए भव्यात्मा पुरुषको चाहिये कि आगामी जीवनकी अभिलाषा, दुःख तथा उपसर्गादिसे मरणकी मनोभावना, मित्रमें अनुराग, पहले उपभोग किये हुए सुखोंमें इच्छा तथा सल्लेखना के माहात्म्यसे आगामी जन्ममें सुखाभिलाषा रूप निदान इन पांच अतीचारोंको छोड़कर सल्लेखना (समाधि) का सेवन करना चाहिये || ६८ ॥ हे उरासक! लोगोंसे किये हुए सत्कारमें आसक्त होकर यह कभी मत समझो कि यह जीवन चिरकाल पर्यन्त स्थिर रहनेवाला है, क्योंकि ये बाह्यपदार्थ भ्रमसे मनोहर मालूम देते हैं तो फिर इस वाह्यवस्तु देहके जीवनकी इच्छा करनेसे तुम्हें कौन नहीं हंसेगा ? किन्तु सब तुम्हारी हंसी करेंगे || ६९ || भूख प्यासकी आतुरतासे तथा रोग-उपसर्गादिकी यन्त्रणा (पीड़ा) से मृत्यु अच्छी है ऐसा विचार कभी मत करो ! क्योंकि दुःखोंके सहन करनेवाला सुखको प्राप्त होता है और मरणाभिलाषी दुःखोंको भोगता है ||७०|| हे भव्य ! जिसके साथ तुम धूलिमें खेले हो उस प्रणयी (मित्र) के साथ भी अब अनुराग मत करो ! क्योंकि मूर्खतासे ऐसी खोटीखोटी लोलाएं बहुत की हैं अब इनसे कुछ साध्य नहीं है ॥ ७१ ॥ हे भद्र ! स्नेहके हेतु शय्यादिमें भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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