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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार अन्यद्रव्यग्रहादेव यद्बद्धोऽनादिचेतनः । तत्स्वद्रव्यग्रहादेव मुच्यतेऽतस्तमाद्रियात् ॥५२ विवेकिना विशुद्धेन त्यक्तं येन समाधिना । । जीवितं तेन किं प्राप्तं नाऽपूर्वं वस्तु वाञ्छितम् ॥५३ समर्पयित्वा स्वं भिदारोप्य महाव्रतम् । निर्वासा भावयेदेव तदनारोपितं परम् ॥५४ गुरुनियुज्य तत्कार्ये यथायोग्यं गुणोत्तमान् । यतस्तं बहु संस्कुर्यात्स त्वार्याणां महामखः ॥५५ कल्प्यां बहुविधां भुक्ति प्रदर्श्यष्टां तमाश्रयेत् । जडत्वात्तत्र रज्यन्तं ज्ञानवाक्यैनिषेधयेत् ॥५६ भो जितेन्द्रिय ! मार्गज्ञ ! ऋषिपुङ्गव ! सद्यशः । इमे कि प्रतिभासन्ते पुद्गलास्तेऽद्य सौख्यदाः ॥५७ न सोऽस्ति पुद्गलः कोऽपि यस्त्वया स्वाद्य नोज्झितः । अस्य मूर्त्तस्य ते मूर्त्तेरुपकारः कथं भवेत् ॥५८ शुद्धो बुद्धः स्वभावस्ते स एव स्वहितावहः । सुखमिन्द्रियजं दुःखकारणं स्वास्थ्यवारणम् ॥५९ यन्मन्यते भवानेवं भुञ्जेहं सुखदायिनीम् । एनां भुक्ति समालम्ब्य करणैरनुभवन्ननु ॥६० इतना भ्रान्ति निरस्य स्फुरतों हृदि । सोज्यं क्षणोऽस्ति ते यत्र जाग्रति स्वहिते चणाः ॥ ६१ समान शरीरका आश्रय करके रहनेवाले नग्नत्व आदि लिंग है उन्हें मृत्युके समय छोड़कर अपने आत्म-चिन्तवन में निमग्न होना चाहिये || ५१|| जो यह अनादिचेतन दूसरे द्रव्योंके ग्रहणसे ही बंधा हुआ है वह अपने द्रव्य (आत्मद्रव्य) के ग्रहण करनेसे ही दूसरे द्रव्यके सम्बन्धसे रहित होगा । इसलिए अपने आत्मद्रव्यको ही ग्रहण करना चाहिये ||१२|| जिस विचारशील मानवने विशुद्ध समाधिपूर्वक अपने जीवनका परित्याग किया है (सल्लेखना पूर्वक मरण किया है) उसने संसारमें ऐसी मनोभिलषित अपूर्व वस्तु क्या है जिसे न पाई हो ? अर्थात् सभी अवश्य पाई हैं ॥५३॥ जो दिगम्बर हो गये हैं उन्हें अपनेको अपने गुरुके अधीन करके और अपनेमें महाव्रतका आरोप करके भावना भानी चाहिये । अर्थात् - मैं महाव्रतका धारक हूं और जिसने जिन दीक्षा नहीं ली है अर्थात् — वस्त्र सहित है उसे - अपने में महाव्रतका आरोप न करके महाव्रतकी भावना भानी चाहिये || ५४ || गुरु (आचार्य) को चाहिये कि मोक्षसाधनादि उत्तम गुणोंके पात्र संयमो श्रावकोंको उनकी योग्यतानुसार उसके कार्य (धर्मकथा सुनाना तथा मलोत्सर्गादिक्रिया कराना आदि) में नियोजित करके उसमें रत्नत्रयका संस्कार करावे, क्योंकि रत्नत्रयका संस्कार करना आर्य पुरुषों का बड़ा भारी यज्ञ है ।। ५५ ।। यदि कोई सल्लेखना स्वीकार करनेके तथा अन्न-जलका त्याग करने के पश्चात् भक्तपानको इच्छा प्रकट करे तो उसके ग्रहण करने योग्य अनेक प्रकारको उत्तम भोजन सामग्री उसे दिखाकर भोजनके लिए देनी चाहिये । यदि अज्ञानता से उसमें आसक्त होने लगे तो उसी समय नाना प्रकारके धर्म सम्बन्धी आख्यानों (कथाओं) को सुनाकर भोजनसे विरक्त करना चाहिये ||१६|| हे इन्द्रियोंके जीतनेवाले ! हे जिनमार्गके जानने वाले ! हे ऋषियोंमें उत्तम ! हे सत्कीत्ति भाजन ! क्या आज ये पुद्गल तुम्हें सुख के देनेवाले मालूम पड़ते हैं || ५७|| इस लोकाकाश में ऐसा कोई पुद्गल नहीं बचा है जिसे तुमने भोगकर न छोड़ा हो, दूसरे यह पुद्गल मूर्तीक पदार्थ है तो अब तुम्हीं कहो कि - इस मूर्तीकसे तुम्हारे अमूर्त्तीक आत्मद्रव्यका उपकार कैसे हो सकता है ? || ५८ || शुद्ध तथा ज्ञायकस्वभाव तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है और वही आत्महितका कारण है । इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला जो सुख है वह दुःखका हेतु तथा आत्मस्थभावका नाश करने वाला है ||५९|| ये भोजनादि केवल इन्द्रियोंकी पूत्तिके कारण हैं ऐसा इन्द्रियों से अनुभव करते हुए भी मैं सुख देनेवाला भोजन करता हूँ ऐसा जो तुम मान रहे हो ||६० || परन्तु यह तुम्हारा भ्रम है । इसलिए अपने हृदय में स्थित इस भ्रमको दूर करो ! तुम्हारे लिए यह वह समय है जिसमें आत्महितके लिए उद्यमशील पुरुष जाग्रत रहते हैं || ६१ ॥ | यह पुद्गल भिन्न वस्तु है और मैं दूसरा Jain Education International १८३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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