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________________ १८२ श्रावकाचार-संग्रह सन्यासार्थी ज्ञकल्याणस्थानमत्यन्तपावनम् । आश्रयेत्तु तदप्राप्तो योग्यं चैत्यालयादिकम् ॥४१ प्रस्थितः स्थानतस्तीर्थे म्रियते यद्यवान्तरे । स्यादेवाऽऽराधकस्तद्धि भावना भवनाशिनी ॥४२ ममत्वाद्वेषरागाभ्यां विराधकेन येन हि । विराद्धो यस्तं क्षमयेत्क्षाम्येत्तस्मै त्रिधा च सः ॥४३ तीर्णो जन्माम्बुधिस्तैर्यैः क्षमणं क्षामणं कृतम् । क्षमयतां न क्षाम्यन्ति ये ते स्युर्दुःखितो भवे ॥४४ योग्ये मठादौ काले च स्वापराधं स सूरये। विधोक्त्वाशोधितस्तेन निःशल्योऽध्वनि सञ्चरत् ॥४५ संविशुद्धिसुधासिक्तो यथाविधि समाधये । प्राग्वोदग्वा शिरः कृत्वा शान्तधीः संस्तरं भजेत् ॥४६ संस्थानत्रिकदोषायाऽप्यापवादिकलिङ्गिने । महावतेहिने लिङ्गं दद्यादौत्सर्गिकं तदा ॥४७ कक्षापटेऽपि मूच्छित्वादार्यो नार्हति तद्वतम् । आयिका साटकेऽमूर्छत्वाद्धाक्तं च सदाहति ॥४८ ह्रीको महद्धिको वा यो मिथ्यादृक् प्रौढबान्धवः । नाग्न्यं पदे विविक्ते सः साधुलिङ्गोऽपि नाहति ॥४९ यदापवादिकं प्रोक्तमन्यदा जिनपैः स्त्रियः । पुंवद्धण्यते प्रान्ते परित्यक्तोपधे किल ॥५० वपुरेव भवो जन्तोलिङ्गं यच्च तदाश्रितम् । तद्ग्रहं जातिवत्तत्र मुक्त्वा स्वात्मगृहं श्रयेत् ॥५१ पुरुषोंको चाहिये कि-जिस स्थानमें जिन भगवान्का ज्ञान कल्याण हुआ है ऐसे पवित्र स्थानका आश्रय करें और यदि ऐसे स्थानोंकी कारणान्तरोंसे प्राप्ति न हो सके तो जिन मन्दिरादि योग्य स्थानोंका आश्रय करें ॥४१॥ किसी तीर्थ स्थानमें जानेके लिये गमन किया हो और वहांतक पहुँचने के पहले ही यदि मृत्यु हो जाय तो भी वह आराधक होता ही है क्योंकि-समाधिमरणके लिए की हुई भावना भी संसारके नाश करनेवाली है ॥४२॥ ममत्वसे, द्वेषसे अथवा रागसे अपने द्वारा जिसे दुःख पहुँचा है उससे क्षमा करावे तथा जिसके द्वारा अपनेको दुःख पहुँचा हो उसपर मन वचन कायसे क्षमा करें॥४३॥ उन महात्मा पुरुषोंने इस जन्म रूप समुद्रको तिरकर पार कर लिया है जिन्होंने स्वयं क्षमा की है अथवा दूसरोंसे क्षमा कराई है और जो लोग अपने ऊपर क्षमा करने वाले पुरुषोंपर क्षमा नहीं करते हैं वे लोग नियमसे भव-भवमें दुःखी होते हैं ॥४४॥ योग्य मठादि स्थानमें तथा योग्य कालमें अपने अपराध (पाप) को मन वचन तथा कायसे आचार्य महागजके समीप निवेदन करके और उनके द्वारा दिये हुए प्रायश्चित्तसे शुद्ध (निर्दोष) होकर शल्य-रहित रत्नत्रय सम्पादन करनेके मार्गमें विहार करें ॥४५॥ यथाविधि विशुद्धता रूप अमृतसे सिंचित होकर समाधिमरणके लिए उत्तर दिशाको ओर अथवा पूर्व दिशाकी ओर अपना मस्तक करके शान्तिपूर्वक संस्तरका आश्रय लेना चाहिये ॥४६॥ जिसके दोनों अण्डकोष और लिंग इन तीनों स्थानोंमें दोष हो और अपवाद लिंग (सग्रन्थवेष) धारण करनेवाला हो किन्तु जो महाव्रत लेनेकी अभिलाषा रखता हो उसके लिए आचार्यको चाहिये कि उत्सर्गलिंग (मुनिलिंग) देवें ॥४७॥ कक्षापट (लंगोट) मात्रमें भी मूर्छा होनेसे आर्य (ऐलक) महाव्रत धारण करने योग्य नहीं है और साटिका (साड़ी) में मूर्छा के न होनेसे आर्यिका महाव्रत धारण करने योग्य कही जाती है ॥४८|| जो लज्जावान है, ऐश्वर्यशाली है, मिथ्यादृष्टि है, अथक जिसके बहुत कुटुम्ब लोग हैं ऐसा पुरुष यदि उक्त दोष-रहित प्रशस्त लिङ्गका धारी भी क्यों न हो तो भी वह जन समुदायमें नग्नचिह्न धारण करने योग्य नहीं है ॥४९॥ स्त्रियोंके लिए जिन भगवान्ने अपवादलिंग कहा है परन्तु अन्त समयमें जिन स्त्रियोंने परिग्रहादि उपाधि छोड़ दो हैं उन्हें भी पुरुषोंके समान औत्सर्गिक लिंग कहा है ॥५०॥ जीवोंको शरीरका प्राप्त होना इसे ही तो संसार कहते हैं इसलिए शरीरके आथित ब्राह्मणादि जातिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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