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धर्मसंग्रह श्रावकाचार
रागो द्वेषश्च मोहश्च कषायः शोकसाध्वसे । इत्यादीनां परित्यागः साऽन्तः सल्लेखना हिता ॥ ३१ अन्नं खाद्यं च लेह्यं च पानं भुक्तिश्चतुर्विधा । उज्झनं सर्वथाऽप्यस्या बाह्या सल्लेखना मता ॥३२ पुष्टोऽन्तेऽन्नर्मलैः पूर्णः कायो न स्यात्समाधये । कार्यस्तत्साधुना युक्त्या शोध्यश्चैष तदीया ॥ ३३ असॅल्लिखतः कषायांस्तनोः सल्लेखनाऽफला । जडैर्दण्डयितुं चैतान्वपुरेव हि दण्ड्यते ॥ ३४ प्रायो विधामदान्धानां कषायाः सन्ति दुर्द्दमाः । येsपि चाऽऽत्माङ्गभेदज्ञास्तान्दाम्यन्ति जयन्ति ते ॥ ३५
दुष्करा न तनोर्हानिर्मुने: किञ्चाsत्र संयमः । योगप्रवृत्तेर्व्यावयं तदाऽऽत्मात्मनि युज्यताम् ॥३६ संयतः श्रावको वान्ते कृत्वा प्रायं जितेन्द्रियः ।
लीनः स्वात्मनि च प्राणांस्त्यक्त्वा स्यादुदितोदयः ॥ ३७
दुर्दैवेनाप्यलं कत्तु प्रविघ्नो भाविताऽऽत्मनः । समाधिसाधने दक्षे गणे च गणनायके ॥३८ भ्रमता जन्तुनाऽनेनानन्ताः प्राप्ताः कुमृत्यवः । समाधिपूतश्चैकोऽपि नाऽवापि चरमक्षणः ॥३९ श्लाघ्यन्ते साधवोऽत्यन्तं प्रभावं चरमक्षणम् । भव्याः समाहिता यत्र प्राप्नुवन्ति परं पदम् ॥४०
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जो त्याग करना है उसे हितकारी आभ्यन्तर सल्लेखना कहते हैं ||३१|| अन्न, खाने योग्य वस्तु, स्वाद लेने योग्य वस्तु तथा पीने योग्य वस्तु इस प्रकार चार प्रकार भुक्तिका सर्वथा त्याग करने को बाह्य सल्लेखना कहते हैं ||३२|| नाना प्रकारके अन्नादिसे अहोरात्र पुष्ट किया हुआ तथा पुरीष मूत्र, कफादि मलसे पूर्ण यह शरीर यदि मरण समयमें समाधिसाधनके लिए न हो तो साधु पुरुषोंको चाहिये कि - इसे युक्ति पूर्वक आहारादिके त्यागसे कृश करें तथा सल्लेखनाकी अभिलाषासे शुद्ध करें ||३३|| कषायोंको कृश नहीं करनेवाले मनुष्योंको शरीरका कृश करना निष्फल है क्योंकि कषायोंके कृश करनेके लिये शरीर कृश करना मूर्ख लोगोंका काम है ||३४|| जो लोग ऐसा समझते हैं कि – पहले शरीरको कृश करना चाहिये, शरीरके कृश हो जानेसे कषायें तो अपने आप कृश हो जायगीं। उनका ऐसा समझना भ्रम है । क्योंकि पहले कषायोंको कृश करने वाले भव्य पुरुषोंके ही शरीरका कृश करना सार्थक समझा जाता है इसलिये पहले कषायोंको मन्द करना योग्य है । जो लोग अन्नके मदसे अन्ध हैं उनके लिये कषायें बहुत ही दुर्दमनीय हैं और जो लोग आत्मा तथा शरीरके भिन्न भावको जाननेवाले हैं वे ही इन कषायोंका दमन ( नाश) करते हैं और विजय प्राप्त करते हैं ||३५|| मुनियोंको शरीरका त्याग करना बहुत कठिन नहीं है किन्तु शरीर छोड़ते समय संयमका रहना बहुत ही कठिन है । इसलिए मन वचन तथा कायकी प्रवृत्तिको रोककर अपने आत्माको आत्मामें लगाना चाहिये || ३६ || जो इन्द्रियविजयी संयमी अथवा श्रावक अन्त समयमें अनशन (उपवास) करके तथा अपने आत्मस्वभावमें लीन होकर प्राणोंको छोड़ता है वह उत्तरोत्तर उदयशाली होता है ||३७|| समाधिके साधन करनेमें योग्य ऐसे निर्यापकाचार्य अथवा संघमुनी आदि महात्माओं के विद्यमान रहते हुए समाधिमरण करनेवाले भव्यात्मा पुरुषोंको दुर्दैव (प्रतिकूल कर्म ) भी विघ्न करनेको समर्थ नहीं हो सकता ||३८|| अहो ! चिरकालसे अपार संसार में पर्यटन (भ्रमण) करते हुए इस जीवके कुमरण तो अनन्त बार हुए, परन्तु समाधि ( सल्लेखना ) से पवित्र मरण एक भी समय नहीं हुआ ||३९|| साधु लोग मरण समय में होनेवाले अन्तिम समयकी बहुत प्रशंसा करते हैं जिस अन्तिम समयमें भव्यपुरुष सावधान मन होकर परम पद (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं ॥ ४० ॥ संन्यास (सल्लेखना ) के अभिलाषी
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