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________________ १८० व्यावकाचार-संग्रह विधातव्यो दवीयस्यप्यमृते यतनो व्रते । व्रतात्स्वः समयक्षेपो वरं न निरयेऽव्रतात् ॥२.० दुभिक्षे चोपसर्गे वा रोगे निःप्रतिकारके । तनोविमोचनं धर्मायाऽऽहुः सल्लेखनामिमाम् ॥२१ सल्लेखनां स सेवेत द्विविधां मारणान्तिकीम् । चतुर्द्धाऽऽराधनायाश्च स्मरन्नागमयुक्तितः ॥२२ हम्बोधवृत्ततपसां द्विधा साऽऽराधना मता । निश्चयव्यवहाराभ्यां तदाऽऽराधकसूरिभिः ॥२३ जीवादीनां पदार्थानां श्रद्धानं दर्शनं हि तत् । संशयादिव्यवच्छेदात्तज्ज्ञानं ज्ञानमुच्यते ॥२४ पापक्रियानिवृत्तिर्या व्रतादिपरिपालनात् । त्रयोदशप्रकारेण प्राज्ञैस्तद्वृत्तमीरितम् ॥ २५ बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विषा द्वादशधा पुनः । प्रायश्चित्तोपवासाद्यैस्तपसः करणं तपः ॥ २६ एतेषामुद्वहनं निर्वाह: साधनं च निस्तरणम् । उद्योतनं च विधिना व्यवहाराऽऽराधना प्रोक्ता ॥२७ आत्मनो दर्शनं दृष्टिर्ज्ञानं तज्ज्ञानतो भवेत् । स्थिरीभावाच्च चारित्रं तत्रैव तपनं तपः ॥२८ निश्चयाssराधना सेयं निर्विकल्पसमाधिभाक् । स्वसंवेदनमाख्यातः शून्यध्यानं च तन्मतम् ॥ २९ सल्लेखनाऽथवा ज्ञेया बाह्याभ्यन्तरभेदतः । रागादीनां चतुर्भुक्तेः क्रमात्सम्यग्वि लेखनात् ॥३० करनेमें प्रयत्न करना चाहिये । व्रतपूर्वक स्वर्ग में बहुत समयका व्यतीत करना तो अच्छा है परन्तु व्रत धारणके बिना नरकमें जाना अच्छा नहीं है ||२०|| दुर्भिक्ष पड़नेपर, उपसर्गादिके आनेपर तथा जिसका किसी प्रकार उपचार नहीं हो सकता ऐसे निरुपाय रोग के होनेपर धर्मके अर्थ शरीरके छोड़नेको आचार्य लोग सल्लेखना कहते हैं ||२१|| उसे चाहिये कि - शास्त्रानुसार तथा युक्तिसे चार प्रकारकी आराधनाका स्मरणपूर्वक मरण समयमें होनेवाली दो प्रकारकी सल्लेखनाको धारण करे ||२२|| निश्चय तथा व्यवहारसे - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा सम्यक्तपके आराधन करनेको आराधनाके आराधन करनेवाले महर्षिलोग दो प्रकार आराधना बताते हैं ||२३|| जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य तथा पाप इन नव पदार्थोंके श्रद्धान करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं और संशय, विपरीत तथा अनध्यवसाय इन तीन मिथ्याज्ञान रहित जाननेको सम्यग्ज्ञान कहते हैं ||२४|| व्रत तपश्चरणादिके पालन करनेसे पाप कर्मकी निवृति होनेको सम्यक्चारित्र कहते हैं उसे बुद्धिमान् पुरुषों तेरह प्रकारका बताया है ||२५|| प्रायश्चित्त तथा उपवासादिसे तपके करनेको तप कहते हैं वह बाह्यतप तथा आभ्यन्तरतप इस तरह दो भेद रूप है । फिर वही तप प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्यादि तथा अनशन, अवमौदर्य वृत्तपरिसंख्यादि भेदोंसे बारह भेद रूप है ||२६|| इन सम्यग्दर्शनादि आराधनाओंके धारण करनेको, निर्वाह करनेको, साधन करनेको तथा विधिपूर्वक उद्यापन करनेको व्यवहार आराधना कहते हैं ||२७|| अब निश्चय आराधनाका स्वरूप कहते हैंअपने आत्माके श्रद्धानको निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं, आत्माके ज्ञानसे सम्यग्ज्ञान होता है, आत्मा स्थिर (निश्चल) होनेसे सम्यक्चारित्र होता है तथा आत्मामें ही तपनेको निश्चय तप कहते हैं ||२८|| इसी निश्चय आराधनाको निर्विकल्पसमाधि, स्वसंवेदन तथा शून्यध्यान भी कहते हैं इस निश्चय आराधना में अपने आत्माको छोड़कर न तो किसीका ध्यान किया जाता है। और न किसी दूसरे पदार्थका चिन्तवन करना ही होता है इसीलिए इसे निर्विकल्पसमाधि तथा शून्यध्यान आदि कहते हैं ||२९| | अथवा सल्लेखनाके बाह्य सल्लेखना तथा आभ्यन्तर सल्लेखना ऐसे दो भेद हैं । क्रम-क्रमसे रागादिके घटानेको आभ्यन्तर सल्लेखना कहते हैं और चार प्रकारके आहारके घटानेको बाह्य सल्लेखना कहते हैं ||३०|| राग, द्वेष, मोह, कषाय, शोक तथा भयादिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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