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धर्मसंग्रह श्रावकाचार
गोढापवर्त्तकवशाद्रम्भाव्याघातवत्सकृत् । विनश्यत्यायुषि प्रायमविचारं समाश्रयेत् ॥११ फलवत्क्रमतः पक्त्वा स्वत एव पतिष्यति । काये रागान्महाधैर्यः कुर्यात्सल्लेखनां शनैः ॥१२ देहस्य न कदाचिन्मे जन्ममृत्युरुजादयः । न मे कोऽपि भवत्येष इति स्थान्निमस्ततः ॥ १३ पिण्डोऽयं जातिनामाम्यां तुल्यो युक्त्या प्रयोजितः । पिण्डे चेत्स्वार्थनाशाय तदा तं परिहापयेत् ॥१४ श्रुतैः कषायमालिस्य वपुश्चाऽनशनादिभिः । मध्ये परगणं स्थेयात्समाधिमृतये यतिः ॥१५ सेवितोऽपि चिरं धर्मो विराद्धश्चेन्मृतौ वृथा । आराद्धेऽसावधं हन्ति तदात्वे जन्मसम्भवम् ॥१६ भूपस्येव मुनेर्धर्मे चिरायाऽभ्यासिनोऽस्त्रवत् । युद्धे वा भ्रश्यतो मृत्यौ कार्यनाशोऽयशोऽशुभम् ॥१७ साध्वभ्यस्तामृताध्वान्त्ये स्यादेवाऽऽराधको मुनिः । प्रतिकूलं महापापं किञ्चिन्नोदेति तस्य चेत् ॥१८ अनभ्यस्ताध्वनो जातु कस्याप्यस्याराधना भवेत् । प्रान्तेन्धनिधिलाभोऽसौ नालम्ब्यो धार्मिकैः सदा ॥१९
कहे हुए प्रधान कारणोंसे आयुका निश्चय हो जानेपर जिन लोगोंकी बुद्धि आराधना (सल्लेखना ) के धारण करनेमें उत्साहित है उनके लिये मोक्ष स्थान दूर नहीं है ||१०|| अतिशय रोगादिके वशसे कदली तरुके समान एकदम आयुको विनष्ट होते हुए देखकर अविचार भक्त प्रत्याख्यानका आश्रय लेना चाहिए || ११|| जिस तरह पका हुआ फल वृक्षसे नियमसे गिर जाता है उसी तरह यह देह भी अपने आपही क्रम क्रमसे जीर्ण ( वृद्ध ) होकर गिरेगा, ऐसा समझकर, धीर पुरुषोंको अनुरागपूर्वक धीरे-धीरे सल्लेखना धारण करनो चाहिये ||१२|| ये जन्म, मरण तथा रोगादि सब देह (शरीर) के हैं मेरे ये कोई कभी नहीं है और न कोई मेरा है ऐसा समझ कर शरोरमें ममत्व परिणाम नहीं करना चाहिये ||१३|| पिण्ड (आहार) यह जाति (पुद्गल समुदाय रूप जाति) से तथा नाम ( पिण्ड नाम ) से शरीरके समान ( जिस प्रकार शरीर पुद्गल समुदाय रूप है उसी तरह अन्न भी पुद्गल समुदाय रूप है और शरीरका जिस तरह पिण्ड नाम है उसी तरह अन्नका भी पिण्ड नाम है । अतः शरीर तथा अन्न ये दोनों एक ही समान ) है उस पिण्डका शरीर में युक्तिपूर्वक उपयोग किया गया है तो अब जिस समय समझो कि शरीरको सामर्थ्यं घटती चली जा रही है उसी समय बहारका भी त्याग कर देना चाहिए ॥१४॥ शास्त्रबलके द्वारा कषायोंको तथा उपवासादिसे शरीरको कृश करके समाधिमरणके लिये साघुगणके मध्यमें रहे ||१५|| अरे ! जो धर्म बहुत समय तक सेवन किया गया है यदि वह मृत्युके समय नाश कर दिया जायगा तो हम तो यही कहेंगे कि उस मनुष्यका धर्म सेवन निष्फल ही है और वही धर्म समाधिमरणके समय यदि आराधन किया जाय तो जन्म-जन्ममें उपार्जन किये हुए सब पाप कर्मों का नाश करता है ||१६|| जिस प्रकार बहुत काल पर्यन्त शस्त्र विद्याके अभ्यास करनेवाले राजाका यदि युद्ध कालमें भ्रंश हो जाय तो उसके कार्यका नाश, लोकमें अयश तथा अशुभ होता है उसी तरह जिसने मुनिधर्मका चिरकाल पर्यन्त अभ्यास किया है यदि उसका मरण समय में भ्रंश (धर्मसे पतन) हो जाय तो कार्यका नाश, लोकमें अकीर्ति तथा अशुभ होता है ||१७|| यदि मरण समय में समाधिमरण करनेवाले पुरुषके समाधिमरणका प्रतिबन्धक कोई महापाप उत्पन्न न हो तो सम्यक् प्रकार समाधिमरणके मार्गका अभ्यास करनेवाला वह अन्त समयमें आराधक होता है ॥१८॥ - जिसने समाधिमरणका अभ्यास नहीं किया है उस पुरुषके भी यदि आराधना हो जाय तो हो जाय । परन्तु धर्मात्मा पुरुषोंको - समीपवर्ती यह अन्धनिधिका लाभ मरण समयमें स्वीकार करने योग्य नहीं है ||१९|| बुद्धिमान पुरुषोंको दूर भी यदि मोक्ष है तो भी व्रत धारण
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