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________________ सप्तमोऽधिकारः भुक्त्यङ्गहापरित्यागाद्धचानशक्त्याऽऽत्मशोधनम् । यो जोवितान्ते सोत्साहः साधयत्येष साधकः ॥१ उपासकस्य सामग्रीविकलस्येयमिष्यते । युक्तिः समग्रसामग्यां श्रेयस्करी जिनाकृतिः ॥२ । विरक्ताः कामभोगेभ्यः कारणं प्राप्य किश्चन । धीराः सङ्गं परित्यज्य भजन्ति जिनलिङ्गताम् ॥३ अनादिवामगपि पुमान्धूत्वा जिनाकृतिम् । स्वं स्मरन्समतां प्राप्तो मुच्यतेऽसंशयं क्षणात् ॥४ स्थास्नु नाश्यं बुधर्नाङ्गंधर्मसाधनहेतुतः । केनोपायेन हा ! रक्ष्यमिति शोच्यं पतन्नतैः ॥५ स्वस्थो देहोऽनुवत्यः स्यात्प्रतीकार्यश्च रोगवान् । उपकारमगृह्णन्सन्सद्भिस्त्याज्यो यथा खलः ॥६ अवश्यं नाशिनेङ्गाय धर्मो नाश्यो न सौख्यदः । नष्टमङ्गं पुनर्लभ्यं धर्मोऽतीवाऽत्र दुर्लभः ॥७ धर्मक्षितावात्मघातो नैवास्त्यङ्गं समुज्झतः । क्रोधाद्य द्रेकतः प्राणान्शस्त्राऽऽद्यहिंसतो हि सः ॥८ उपसर्गेण कालेन निर्णीयायुःक्षयोन्मुखम् । सन्न्यासं विधिवत्कृत्वा कुर्यात्फलवतीः क्रियाः ॥९ अरिष्टाध्यायमुख्योक्तनिमित्तैः साधु निश्चिते । मृत्यावाराधनाबुद्धेनं चारात्परमं पदम् ॥१० जो उत्साहपूर्वक मरण समयमें भोजन, शरीर तथा अभिलाषाके त्यागपूर्वक अपनी ध्यानजनित शक्तिसे आत्माको शुद्धताको साधन करता है उसे साधक कहते हैं ॥१॥ साधककी यह वक्ष्यमाण विधि मुनिलिंग धारण करनेकी जिसके पास सामग्री नहीं है उस श्रावकके योग्य समझना चाहिये और जिसके मुनिलिंग धारण करनेकी सब सामग्री है उसके लिये तो फिर मुनिलिंग धारण करना ही कल्याणकारी है ॥२॥ जो लोग संसारमें कुछ भी कारणको पाकर काम भोगादिसे उदासीन होते हैं वे ही धीर पुरुष परिग्रह छोड़कर मुनिलिंग स्वीकार करते हैं ॥३॥ जिनलिंगको अंगीकार करके अनादिमिथ्यादृष्टि पुरुष भी अपने आत्माका स्मरण करता हुआ समभावको प्राप्त होकर निस्सन्देह क्षणभरमें संसारसे छूट जाता है ॥४॥ बुद्धिमानोंको अल्प दिन रहनेवाला जो यह शरीर है इसे धर्म-साधनका कारण होनेसे नाश नहीं करना चाहिये। तथा यह स्वभावसे हो नाश होनेवाला है इसलिये इसके नाश होते समय हाय !!! अब कैसे इसको रक्षा करूं ऐसा शोक भी नहीं करना चाहिये ।।५।। जिस समय शरीर स्वस्थ हो उस समय तो उसका अनुवर्तन करना चाहिये और जब व्याधिसे समाकीर्ण हो तो निरोग होनेके लिये औषधादि उपचार करना चाहिये । परन्तु जब देखा कि अब यह बिल्कुल हमारे उपकारको स्वीकार नहीं करता है ( सब तरहसे शिथिल होकर धर्मकार्यमें कुछ भी उपयोगमें नहीं आता है ) तो उस समय इसे दुष्ट पुरुषके समान छोड़ देना चाहिए ॥६॥ अरे ! यह विनश्वर शरीर तो नियमसे नाश होनेवाला है इसके लिये बुद्धिमानोंको सुख देनेवाला धर्म नाश करना योग्य नहीं है। क्योंकि-शरीर यदि नाश भी हो गया तो वह फिर भी मिल सकता है परन्तु धर्मका मिलना तो बहुत दुर्लभ हो जायगा ॥७॥ धर्म रूप पृथ्वीमें शरीर छोड़नेवाला पुरुष, 'इसने आत्मघात किया', ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि-क्रोधादिका उद्रेक होनेसे शस्त्रादिसे प्राणोंकी हिंसा करनेवाला पुरुष ही आत्माघाती होता है ॥८॥ उपसर्गादिसे तथा वृद्धावस्थासे आयुको क्षयोन्मुख समझकर विधिपूर्वक सल्लेखना स्वीकार करके सर्व क्रियायोंको सफल करना चाहिये ।।९।। मरणसूचक अरिष्ट अध्यायमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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