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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार १७७ विक्रियाऽक्षीणऋद्धोशो यः स राषिरीरितः । परमपिर्जगद्वेत्ति केवलज्ञानचक्षुषा ॥२८५ बुद्धचोषर्धाद्धसम्पन्नो ब्रह्मर्षिरिह भाषितः । नभस्तलविसर्पो यो देवर्षिः परमागमे ॥२८६ प्रत्यक्ष त्रिविधं ज्ञानमवधिश्चित्तपर्यये । केवलं तद्दधत्प्रोक्तो मुनिर्मुनिजिनोत्तमैः ॥२८७ अप्रमत्तगुणाच्छ्रेणी क्षपकोपशमाभिधे । एकत्राऽऽरोहणं कुर्याधस्तयोः स यतिभवेत् ॥२८८ एभ्यो गुणेभ्य उक्तेभ्यो यो बित्ति परान्गुणान् । ज्ञानद्धिनिष्कषायोत्थान्स साधुः समयोदितः ॥२८९ जिनलिङ्गधराः सर्वे सर्वे रत्नत्रयात्मकाः । भिक्षवस्त्वृषिमुख्या ये तेभ्यो नित्यं नमोऽस्तु मे ॥२९० यूनाः कोटयो नवाऽमीषां संख्योत्कर्षतया मता । मुमुक्षणां प्रमत्ताधयोगिपर्यन्तवासिनाम् ॥२९१ धर्माऽऽधेयस्य चाऽऽधाराश्चत्वारस्त्वाश्रमा मया। प्रोक्ता प्रन्यानुसारेण ज्ञातव्यास्ते मनीषिभिः ॥२९२ आद्याऽऽश्रमेऽभ्यस्य जिनागमं यो मेधाऽनुसारेण गृही च भूत्वा। स्वाचारनिष्ठौ भवति त्रिशुद्धचा सन्न्यस्य सोऽप्यामरशं लभेत ॥२९३ गृहाऽश्रमं यः परिहृत्य कोऽपि तं वानप्रस्थं कतिचिद्दिनानि । प्रपाल्य भिक्षुजिनरूपधारी कृत्वा तपोऽनुत्तरमेति मोक्षम् ॥२९४ इस प्रकार ऋषियोंके चार भेद किये हैं ॥२८४॥ जो मुनिनाथ विक्रियाऋद्धि तथा अक्षीण ऋद्धिके स्वामी हैं (जिन्हें उपर्युक्त ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई हैं) उन्हें राजर्षि समझना चाहिये । और जो अपने केवलज्ञान लोचनसे अखिल जगत्को जानते हैं उन्हें परमर्षि समझना चाहिये ।।२८५॥ जिन्हें बुद्धि तथा औषद्धि प्राप्त हो गई हैं उन्हें परमागम (जिनशास्त्र) में ब्रह्मर्षि कहा गया है और जो मुनिराज अपनी ऋद्धिके प्रभावसे आकाश मण्डलमें विहार करनेवाले हैं उन्हें देवर्षि कहते हैं ॥२८६।। अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान तथा केवलज्ञान ये जो तीन प्रत्यक्ष ज्ञान हैं इनके धारण -करनेवाले जो मुनिराज हैं उन्हें जिन भगवान्ने मुनि कहा है ॥२८७।। अप्रमत्त गुणस्थानसेक्षपकश्रेणी तथा उपशम श्रेणी इस प्रकार जो दो श्रेणी हैं उन दोनोंमें किसी एकपर आरोहण करे उसे यति समझना चाहिये ।।२८८।। ऊपर कहे हुए गुणोंसे आगेके ज्ञानऋद्धि तथा कषायोंकी मन्दतासे होनेवाले गुणोंको जो धारण करता है उसे शास्त्रोंमें साधु कहा गया है ॥२८९॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय ही जिनका आत्मा है और जिनलिङ्ग (मुनिलिङ्ग) धारण करनेवाले हैं उन्हें भिक्षु तथा ऋषि कहना चाहिये। उन ऋषि-मुख्योंके लिए मेरा निरन्तर नमस्कार है ॥२९०।। शिव सुखकी अभिलाषा करनेवाले तथा प्रमत्त गणस्थानको आदि ले अयोगिगुणस्थान पर्यन्त गुणस्थानोंके धारण करनेवाले इन मुनियोंको उत्कृष्ट संख्या तीन न्यून नव कोटी कही गई है ॥२९१॥ धर्म रूप जो एक आधेय वस्तु है उसके आधारभूत ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम तथा भिक्ष्वाश्रम ये जो चार आश्रम हैं इनका शास्त्रोंके अनुसार मैंने वर्णन किया । बुद्धिमानोंको ये चारों आश्रम जाननेके योग्य हैं ॥२९२।। जो भव्यात्मा अपनी बुद्धिके अनुसार पहले ब्रह्मचर्याश्रममें जिन सिद्धान्तका अध्ययन कर इसके बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करके, मन वचन तथा कायकी शुद्धिपूर्वक अपने गृहस्थाश्रम सम्बन्धी आचारके पालन करनेमें दृढ़ होता है वह अन्त समयमें संन्यास (सल्लेखना) धारण करके स्वर्ग सुखको प्राप्त होता हैं ॥२९३॥ और जो शिवसद्माभिलाषी भव्य पुरुष गृहस्थाश्रम छोड़कर और कितने दिवस-पर्यन्त वानप्रस्थाश्रमका. यथाविधि पालन करके जिनराज समान यथाजातरूप (मुनिचिन्ह) का धारक होता है वह नाना प्रकार दुष्कर तपश्चरणादि करके अन्तमें शिव (मोक्ष) को प्राप्त होता है ॥२९४|| इति सूरिश्रीजिनचन्द्रान्तेवासिना पण्डितमेधाविना विरचिते श्रीधर्मसंग्रहे चतुराश्रमस्वरूपसूचनो नाम षष्ठोऽधिकारः ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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