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________________ श्रावकाचार-संग्रह इत्थं रजस्वला रक्ष्या यत्नतो गहमेधिना । अन्यथा रोगदारिद्रोपद्रवाः सन्त्यनेकशः ॥२७३ रक्ष्यमाणापि या नारी न तिष्ठति दुराशया । सा पापं बहु बध्नाति दुर्गतौ यद्भयावहम् ॥२७४ तिरश्वी तेन पापेन शूकरी कुक्कुरी खरी । मात्राऽऽदिसङ्गनिर्मुक्ता दुर्गन्धा दुःखिनो भवेत् ॥२७५ अथ नारी भवेद्रण्डा वन्ध्या मृतसुता खला । दुर्भागिनो कुरूपा च भवे भवे नपुंसकम् ॥२७६ मत्वेति सत्कुलोत्पन्ना ऋतावुक्तविधानतः । तिष्ठेद्यत्नेन पापस्य भीत्या सिंहस्य वा मृगी ॥२७७ गृहाश्रमो मया सूक्ताः संहिताद्यनुसारतः । वानप्रस्थस्य भिक्षोश्च आश्रमः कथ्यतेऽधुना ॥२७८ __उत्कृष्टः श्रावको यः प्राक्क्षुल्लकोऽत्रैव सूचितः । स चाऽपवादलिङ्गी च वानप्रस्थोऽपि नामतः ॥२७१. अष्टविंशतिकान्मूलगुणान्ये पान्ति निमंलान् । उत्सर्गलिङ्गिनो धीरा भिक्षवस्ते भवन्त्यहो ॥२८० अचेलक्यं शिरोलोचो निराभरणसंस्कृतिः । उत्सर्गलिङ्गमेतत्स्याच्चतुर्धा पिच्छधारणम् ॥२८१ भिक्षां चरन्ति येऽरण्ये वसन्त्यल्पं जिमन्ति च । बहु जल्पन्ति नो निद्रां कुर्वते नो तपोधनाः ॥२८२ ऋषिमुनिर्यतिः साधुभिक्षुकः स्याच्चतुविधः । तद्भ दो विस्तरादास्तां संक्षेपावक्ष्यते शृणु ॥२८३ राषिः परमर्षिश्च देवब्रह्मर्षिको तथा । ऋषेश्चतुभिदा प्रोक्ता ऋषिकल्पे जिनेश्वरैः ॥२८४ लेकर चार दिन व्यतीत करके पांचवें दिन स्नान करके दूसरे वस्त्र धारण करना चाहिये ॥२७२॥ इस प्रकार गृहस्थ लोगोंको रजस्वला स्त्रोका रक्षण करना चाहिये। ऐसा न करनेसे रोग तथा दरिद्रता आदि अनेक उपद्रव होते हैं ॥२७३॥ अनेक प्रकारके उपायोंसे रक्षा की हुई भी खोटे अभिप्रायवाली जो स्त्री न ठहरतो है अर्थात्-सुशोल न रहकर व्यभिचार सेवन करती है वह स्त्री बहुत पापका संचय करतो है जो पाप कुगतियोंमें नाना प्रकार दुःखका देनेवाला है ॥२७४। उसी पापके फलसे शूकरी, कुत्ती तथा गधी होकर अपनी माता आदिके संगसे छूटकर दुर्गन्धा तथा दुःखिनी होती है ।।२७५।। व्यभिचारिणी स्त्री पति विरहित ( रण्डा ) हो जाती है, वन्ध्या होती है, जिसके मरा हुआ पुत्र होता है, दुष्टा होतो है, खोटे भाग्य वाली होतो है, कुरूपिणी होती है तथा जन्म-जन्ममें नपुसक पर्याय धारण करती है ।।२७६।। इस प्रकार पापके फलको समझ कर उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेवाली स्त्रीको चाहिये कि-पापके भयसे ऋतुके समयमें ऊपर कहे हुए विधानके अनुसार प्रयत्न पूर्वक रहे जिस तरह सिंहके भयसे मृगी रहती है ।।२७७।। संहिता, आदि शास्त्रोंके अनुसार गृहस्थाश्रमका मैंने वर्णन किया। अब वानप्रस्थाश्रम तथा भिक्ष्वाश्रमका कथन किया जाता है ॥२७८।। पहले जो उत्कृष्ट श्रावक क्षुल्लकका इसी ग्रन्थमें वर्णन किया जा चुका है उसे ही अपवादलिंगी तथा वानप्रस्थ भी कहते हैं ॥२७९।। जो विशुद्ध अट्ठाईस मूल गुण पालन करनेवाले हैं तथा उत्सर्ग लिंग (मुनिलिंग) के धारण करनेवाले हैं सहनशोल वे महात्मा भिक्षु ( साधु ) कहे जाते हैं ।।२८०॥ वस्त्र-रहितपना, शिरके केशोंका लोंच करना, आभरण-रहित संस्कार तथा पिच्छी धारण करना इस तरह उत्सर्ग लिंग चार प्रकार है ॥२८१॥ वे तपोधन (साधु लोग) भिक्षा वृत्तिसे आहार लेते हैं, वनमें निवास करते हैं, बहुत थोड़ा जीमते हैं, न बहुत बोलते हो हैं और न अधिक निद्रा लेते हैं ॥२८२।। ऋषि, मुनि, साधु तथा यति इस प्रकार भिक्षुकके चार विकल्प हैं। इनका विस्तार तो हम कहाँलौं वर्णन करें परन्त बहुत थोडे में कहते हैं इसलिये हे राजन! उसे तुम सुनो ॥२८३।। ऋषि सम्बन्धी शास्त्रोंमें जिनदेवने राजर्षि, परमषि, देवर्षि तथा ब्रह्मर्षि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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