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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार मतान्तराद्दिवापञ्च दश द्वादश पक्षकम् । क्षत्रियद्विजवैश्यानां शूद्राणां सूतकः क्रमात् ॥२६१ कुर्यात्पुष्पवती मौनमास्नानं पुष्पदर्शनात् । अभुक्ता वर्जयेद्भुक्ति पुनर्भुक्ता च तद्दिने ॥२६२ तद्दिनात्त्रीणि सान्यानि दिनानि परिपालयेत् । शुप्ति गेहस्य वस्तूनि मा स्पृशेन्मा भ्रमेद्गृहे ॥ २६३ चौरीब रहसि प्रायस्तिष्ठन्ती मा वदेद्वहु । स्नायं स्नायं सचेलं चेद्भुञ्जीत रसर्वाजितम् ॥ २६४ चण्डालिनीव दूरस्था मृद्भाण्डेऽगदले करे । समश्नुवीत मौनेन पापशत्रुभयादियम् ॥ २६५ भुञ्जीत पत्रकांशादिपात्रे सा तत्पुनर्नवम् । घटयेद्यद शुद्ध स्यात्तदा नाऽपरथा क्वचित् ॥ २६६ तस्याः स्पृष्टं जलाद्यं तो कल्पते भोजनेऽर्चने । दानेऽपि यच्च तच्छुप्तिर्बहुकार्यविरोधिनी ॥ २६७ नेत्ररोगी भवेदन्धः पक्वान्नाद्यं विनश्यति । रङ्गो विरङ्गतां याति मञ्जिष्ठादेस्तदाश्रयात् ॥ २६८ रात्रौ शयीत भूमादावेकान्ते योगिनीव सा । सावधानमना नारोपर्यायं बहुनिन्दती ॥ २६९ चतुर्थरात्रौ भोग्या सा भर्त्रा सन्तानहतवे । अवश्यं रात्रौ कामार्त्ता व्यभिचारं करोति हि ॥ २७० रजो रक्तसमुत्पन्नाः सुसूक्ष्माः कृमयोऽधिकाः । योनिवर्त्मनि कण्डूति नारीणां जनयन्ति हि ॥२७१ एवं प्राग्वासरेणाऽमा चतुरो वासरानपि । समुत्क्रम्य दिनेऽन्यस्मिन्स्नात्वा वस्त्रः प्रवर्त्तताम् ॥२७२ पाँच दिन पर्यन्त उक्त कार्य नहीं करना चाहिये || २६०|| अन्य मतके अनुसार- क्षत्रिय कुलोद्भव लोगोंको पाँच दिन, ब्राह्मण लोगोंको दश दिन, वैश्यवंश समुत्पन्न लोगोंको बारह दिन तथा शूद्र लोगों को पन्द्रह दिन पर्यन्त सूतक पालन करना कहा है || २६१ ॥ पुष्पवती ( रजस्वला ) स्त्री को पुष्पके देखने के दिनसे स्नान - पर्यन्त मौनपूर्वक रहना चाहिये । यदि भोजन करनेके पहले रजस्वला हो जाय तो फिर भोजन नहीं करना चाहिये । अथवा भोजन करनेके बाद रजस्वला होवे तो फिर उस दिन भोजन नहीं करना चाहिये || २६२ || पुष्प दर्शन के दिनसे लेकर तीन दिन पर्यन्त पालन करना चाहिये तथा शयनागारकी वस्तुओंको न तो छूना चाहिये और न घरमें भ्रमण करना चाहिये ।।२६३ || चोरी करनेवाली स्त्रीके समान बहुधा करके एकान्त स्थानमें ही रजस्वला स्त्री रहे तथा न बहुत बोले । भोजन करने के समय वस्त्र - सहित स्नान करके रस-रहित भोजन करे ॥ २६४॥ चण्डालिनीके समान अलग बैठी हुई रजस्वला स्त्रीको पाप शत्रुके डरसे मृत्तिका के बर्तन में, वृक्षोंके पत्रोंमें अथवा अपने हाथ ही में भोज्य वस्तु लेकर मौनपूर्वक भोजन करना चाहिये || २६५|| यदि रजस्वला स्त्री काँशी, पीतल आदि धातुओंके भाजनमें भोजन करे तो वह भाजन फिरसे नया बनाया जावे तब ही शुद्ध (काममें लाने योग्य) हो सकता है बिना फिरसे नवीन बनायें कभी पवित्र नहीं हो सकता || २६६ || रजस्वला स्त्रीसे स्पर्श हुई जलादि वस्तु भोजनमें, जिन पूजनमें तथा दानमें काम नहीं लानी चाहिये । यही कारण है कि रजस्वला स्त्रीकी शुप्ति (स्पर्श) बहुत कार्यको नाश करनेवाली है || २६७ || रजस्वला स्त्रीके स्पर्शसे जो नेत्र रोगी है वह तो अन्धा हो जाता है, पक्वान्नादि वस्तु नष्ट हो जाती है और मंजीठ आदिका रङ्ग विरङ्ग हो जाता है || २६८|| सावधानमन पूर्वक स्त्रो पर्यायकी अनेक तरह निन्दा करती हुई रजस्वला स्त्री को योगिनी ( साध्वी स्त्रीके समान एकान्त स्थानमें पृथ्वी आदिपर रात्रि के समय शयन करना चाहिये || २६९ || पतिको सन्तान होनेके लिए उस स्त्री के साथ चतुर्थ रात्रिमें विषयोपभोग करना चाहिये । यदि उस दिन उसके साथ रमण न किया जाय तो नियमसे वह कामसे पीडित होकर व्यभिचार सेवन करती है || २७० || क्योंकि - रजोरक्त में उत्पन्न होनेवाले अत्यन्त छोटे-छोटे जीव स्त्रियों के योनि स्थान में कण्डति (खजली) को उत्पन्न करते हैं ।। २७१|| इसी तरह पहले दिनसे Jain Education International १७५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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