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________________ १७४ श्रावकाचार-संग्रह तत्तत्कानुसारेण जाता वर्णास्त्रयस्तदा । क्षत्रिया वणिजः शूद्राः कृतास्तेनादिवेघसां ॥२४९ परीक्ष्याऽद्येन चक्रेशा क्षत्रिया व्रततत्पराः । ब्राह्मणाः स्थापिता दानहेतवे ब्रह्मभक्तितः ॥२५० त्रिवर्णेषु च जायन्ते ये चोच्चैर्गोत्रपाकतः । देशावयवशुद्धानां तेषामेव महावतम् ॥२५१ नोर्गोत्रोदयाच्छूद्रा भवन्ति प्राणिनो भवे । प्रमत्तादिगुणाभावात्तेषां स्यात्तदणुव्रतम् ॥२५२ मनुष्यगतिरेकैव विपाकान्नामकर्मणः । चारित्रावृत्तिभेदाच्च गोत्रकर्मोदयादपि ॥२५३ चतुर्वर्णाः समुद्दिष्टाः पुरा सर्वविदा खलु । केवल्याऽस्त्रियः पूज्या हीनोऽन्त्यस्तदभावतः ॥२५४ परस्परं त्रिवर्णानां विवाहः पङ्क्तिभोजनम् । कर्तव्यं न च शूद्रैस्तु शूद्राणां शूद्रकैः सह ॥२५५ स्वां स्वां वृत्ति समुत्क्रम्य यः परां वृत्तिमाश्रयेत् । स दण्डयः पार्थिवैढं वर्णसङ्करतान्यथा ॥२५६ पञ्चतायां प्रसूतौ च दिनानि दश सूतकम् । एकादशाऽहे संशोध्य गृहं वस्त्रं तनुं तथा ॥२५७ मृद्भाण्डानि पुराणानि बहिः कृत्य विधाय च । शुद्धां पाकादिसामग्री पूजयेत्परमेश्वरम् ॥२५८ श्रतं च गुरुपादांश्च पूजयित्वा यथाविधि । व्रतोद्योतनमादाय शुद्धो भूत्वा प्रवर्त्तताम् ॥२५९ सूतके न विधातव्यं दानाऽध्ययनपूजनम् । नोचोत्रस्य बन्यत्वाद्गोत्रिणां पञ्चवासरान् ॥२६० जिनेन्द्र आदि विधाता (प्रजापति) हुए ॥२४८। उसी समय अपने-अपने कर्मके अनुसार प्रजामें तीन वर्ण हुए उन्हें आदि विधाता ऋषभ देवने क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र इन तीन नामोंसे युक्त किया ॥२४९। इसके बाद आदि चक्रवर्ती भरत महाराजने परीक्षा करके व्रत धारण करनेवाले क्षत्रिय लोगोंको ब्रह्मभक्तिसे दानके लिये ब्राह्मण स्थापित किये । २५०॥ जो लोग उच्चगोत्रके उदयसे ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्णमें उत्पन्न होते हैं देश तथा अवयवोंसे शुद्ध उन्हीं लोगोंके महाव्रत होता है ।।२५१।। जो जीव नीच गोत्रके उदयसे शूद्र कुलमें उत्पन्न होते हैं । प्रमत्तादि गुण स्थानोंके न होनेसे उसके अणुव्रत होते हैं। अर्थात् शूद्र महाव्रत धारण नहीं कर सकते ॥२५२।। यद्यपि नाम कर्मके विपाकसे, मनुष्यगति एक ही होती है । तथापि चारित्रसे, आजीविकाके भेदसे और गोत्र कर्मके उदयसे सर्वज्ञ देवने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण कहे हैं। उनमेसे आदिके तीनवर्णोको केवल ज्ञानके योग्य बताया है, इसलिये ये पूज्य हैं और शूद्रोंको केवलज्ञान नहीं होता है इसलिये वे हीन कहे जाते हैं ।।२५३-२५४॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णोंको परस्परमें विवाह तथा एक साथ भोजन करना चाहिये। शूद्रोंके साथ नहीं करना चाहिये । तथा शद्रोंको अपने जातिके साथ ही विवाह तथा भोजनादि करना चाहिये ॥२५५।। इन चारों वर्गों में अपनी अपनी वृत्तिका उल्लंघन करके जो दूसरोंकी वृत्तिका आश्रय ले, राजा लोगोंको चाहिये कि उन्हें अच्छी तरह दंड देवें। ऐसा न किया जायगा तो वर्णसंकरता होगी ॥२५६॥ अब सूतकका वर्णन करते हैं मरणमें तथा प्रसूतिमें दश दिन सूतक पालन करना चाहिये । इसके बाद ग्यारहवें दिन घर, वस्त्र तथा शरीरादि शुद्ध करके और मृत्तिकाके पुराने बर्तनोंको अलग करके तथा पवित्र भोजनादि सामग्री बनाकर सर्वप्रथम जिनभगवान्की पूजा करनी चाहिये ।।२५७-२५८॥ शास्त्रोंकी तथामुनिराजोंके चरणोंकी विधिपूर्वक पूजा करके तथा व्रतका उद्यापन करके शुद्ध होकर फिर कार्य में लगना चाहिये ॥२५९॥ सूतकमें दान, अध्ययन तथा जिन पूजनादि शुभकम नहीं करना चाहिये, क्योंकि सूतकके दिनोंमें दान पूजनादि करनेसे नीच गोत्रका बन्ध होता है और गोत्रके लोगोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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