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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार १७३ भुक्तं मृद्भाण्डपर्णादिस्पृश्येतरजनैस्त्यजेत् । लोहं भस्माग्निशुद्धं स्याद्भक्तं संस्पृश्यजातिभिः ॥२३६ यद्यस्पृश्यजनैर्भुक्तं कांश्यादिघटयेन्नवम् । अस्थ्यादिस्पृष्टं तद्भाण्डमयस्काराग्निना शुचि ॥ २३७ अस्पृश्यजनसंस्पृष्टं धान्य काष्ठफलाम्बरम् । इत्यादिस्वर्ण ताम्बुप्रोक्षणेनैव संस्पृशेत् ॥ २३८ स्पृश्यास्पृश्यपरिज्ञाने वर्ण्यते जातिनिर्णयः । तद्भेदो मुनिभिश्चक्रे कर्मभूमेः प्रवेशने ॥२३९ अस्यामेवावर्सापण्यां भोगभूमिपरिक्षये । अभीष्टफलदातॄणां विनाशे कल्पभूरुहाम् ॥२४० क्षुत्पिपासादिसन्तप्ताः प्रजाः प्रणतकास्तदा । इति विज्ञापयन्देवं नाभेयं समुपत्य वै ॥ २४१ वयं त्वा शरणं प्राप्ता वाञ्छन्तो जीविकां प्रभो । त्रायस्व नः प्रजेशस्त्वं तदुपायोपदेशतः ॥ २४२ आकर्ण्यतिवचस्तासां दीनं करुणयेरितः । वृषभश्चिन्तयामास हितमेवं शरीरिणाम् ॥२४३ विदेहेषु स्थितिनित्या यासावत्र विधीयते । षट्कमविधिसंयुक्ता वर्णत्रयकृता भिदा ॥ २४४ मत्वेति चिन्तितं देवं तदैवाऽयात्सहाऽमरैः । शक्रस्तज्जीवनोपायमिति चक्रे विभागशः ॥ २४५ शुभे लग्ने सुनक्षत्रे विनीतायां जिनालयम् । कृत्वा नगरमन्यच्च ग्रामादिजनरक्षकम् ॥२४६ प्रपाम्येक्षुरसं मिष्टं प्रजानां तत्प्रपालकः । गोत्रमिक्ष्वाकुनामाऽसौ लेभे ताभ्यस्तत्क्षणात् ॥२४७ असिमष्यादिषट्कमंप्रजाजीवनकारणम् । पृथक्पृथगुपादिश्य विधाताऽऽसीज्जगद्गुरुः ॥२४८ तथा पत्रादिको छोड़ देना चाहिये और स्पृश्य जातिके शूद्रोंसे भोजन किये हुए लोहेके भाजन भस्म (राख) तथा अग्निसे शुद्ध होते हैं ||२३६॥ यदि अस्पृश्य शूद्र कांशी, पीतल, आदिके बर्तनों में भोजन करे तो उसे फिर नवीन ही बनाना चाहिये, जब तक वह फिरसे न बनाया जायगा तब तक शुद्ध नहीं हो सकता । यदि हड्डी आदि अपवित्र वस्तुओंका उन बर्तनोंसे स्पर्श हो जाय तो वे लोहारकी अग्निसे अर्थात् लोहार के द्वारा अग्नि में तपानेसे शुद्ध हो सकते हैं ||२३७|| अस्पृश्य शूद्रोंसे छूए हुए धान्य, काष्ठ, फल तथा वस्त्रादि वस्तुओंको–स्वर्णसे पवित्र किये हुए जलसे सींच कर फिर उन्हें स्पर्श करना चाहिये || २३८॥ स्पृश्यजाति तथा अस्पृश्य जातिके जानने पर जातिका निर्णय किया जाता है इसका भेद प्राचीन मुनिलोगोंने कर्मभूमि के प्रवेश के समय में किया है || २३९ || इसी हुण्डावसर्पिणी कालमें भोगभूमिका सर्वथा नाश हो जानेपर तथा मनोऽभिलषित फलके देनेवाले दश प्रकारके कल्पवृक्षोंका अभाव हो जानेपर क्षुधा, पिपासादिकी पीड़ासे आकुलित होकर सर्व प्रजाके लोक उस समय भगवान् आदि जिनेंद्रके पास जाकर यों प्रार्थना करने लगे ।।२४०-२४१|| हे प्रभो ! अपनी आजीविकाके लिये आपके आश्रय आये हैं आप प्रजाके स्वामी हैं इसलिये आजीविका के उपायका उपदेश दे कर हम लोगोंकी रक्षा करो || २४२|| करुणासे प्रेरित भगवान आदि जिनेन्द्र प्रजाके दीन वचनोंको सुनकर उनके हितका इस प्रकार चिन्तवन करने लगे || २४३ || असि, मषि, कृषि आदि छद् कर्म युक्त तथा ब्राह्मण क्षत्रियादि तीन वर्णसे जिसमें भेद है ऐसी नित्य स्थिति जो विदेह क्षेत्रमें है वही यहाँ भी चलाई जाना आवश्यक है || २४४ || भगवान् आदि जिनेंद्रको चिन्ता युक्त देख कर उसी समय सब देवोंके साथ इन्द्र भी आया और विभाग पूर्वक प्रजाके जीवनका उपाय इस तरह किया ॥ २४५ ॥ प्रजापालक श्रीआदिजिनेन्द्र - शुभलग्नमें तथा शुभ नक्षत्रमें अयोध्या नगरीमें जिन मन्दिर तथा मनुष्योंकी रक्षा के लिये नगर-ग्रामादिका निर्माण करके इसके बाद प्रजाके लोगोंको साठेका रस पिला कर प्रजाके द्वारा उसी समय इक्ष्वाकुगोत्र इस नामको प्राप्त हुए ।। २४६ - २४७॥ प्रजाके आजीविकाके कारण असि, मषि, कृषि आदि छह कर्मोंका अलग-अलग उपदेश दे करके जगद्गुरु श्री आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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