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श्रावकाचार-संग्रह स्वस्वकर्मरताः सर्वे ते च स्युर्जातिक्षात्रियाः । मन्त्र्यादिपदमारूढा जीवने तीर्थक्षत्रियाः ॥२२६ रत्नत्रयपवित्रत्वाद्ब्रह्मसूत्रेण लाञ्छिताः। पूजिता भरताय॑स्ते ब्राह्मणा धर्मजीविनः ॥२२७
क्षतात्पीडनतो लोकांस्त्रायन्ते क्षत्रियाऽस्तु ते।
ऐक्ष्वाकाद्याः स्वखड्गेन प्रजाषड्भागभागिनः ।।२२८ मषिः कृषिश्च वाणिज्यकर्मत्रितयवेतनाः । वैश्याः केचिन्मताश्चान्यैः पशुपालनतोऽपि च ॥२२९ त्रिवर्णस्य समा ज्ञेया गर्भाधानादिकाः क्रियाः । व्रतमन्त्रविवाहाद्यैः पङ्क्त्या भेदो न विद्यते ॥२३० पशुपाल्यात्कृषः शिल्पाद्वर्तन्ते तेषु केचन । शुश्रूषन्ते त्रिवर्णी ये भाण्डभूषाम्बरादिभिः ॥२३१ ते सच्छूद्रा असच्छूद्रा द्विधाः शूद्राः प्रकोत्तिताः । येषां सकृद्विवाहोऽस्ति ते चाद्याः परथा परे ॥२३२
सच्छुद्रा अपि स्वाधीनाः पराधीना अपि द्विधाः ।
दासीदासा: पराधीनाः स्वाधीनाः स्वोपजीविनः ॥२३३ असच्छुद्रा तथा द्वधाः कारवोऽकारवः स्मृताः । अस्पृश्याः कारवश्चान्त्यजादयोऽकारवोऽन्यथा ॥२३४ अस्पृश्यजनसंस्पर्शान्मृद्भाण्डं वर्जयेत्सदा । लोहभाण्डं भवेच्छुद्धं भस्मनः परिमार्जनात् ॥२३५ ब्राह्मणादि जाति तथा तीर्थ इन दो भेदोंसे दो-दो प्रकार है ॥२२५।। जो क्षत्रिय अपने-अपने कर्ममें तत्पर रहते हैं वे जातिक्षत्रिय कहलाते हैं और जो क्षत्रिय लोग अपनी आजीविकाके अर्थ मंत्री आदि पदको धारण किये हुए हैं उन्हें तीर्थ क्षत्रिय कहते हैं। इसी प्रकार ब्राह्मणादिको भी जानना चाहिये ॥२२६|| सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयको धारणकर पवित्र होनेसे ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) द्वारा मण्डित, भरत चक्रवर्ती आदि उत्तम पुरुषोंसे सत्कार किये हुए तथा धर्म ही जिनका जीवन है वे ब्राह्मण कहे जाते हैं ।।२२७॥ कष्टादिसे दुःखको प्राप्त होनेवाले लोकोंकी जो अपनी तलवारके बलसे रक्षा करते हैं प्रजाके छठे भागके अधिकारी तथा इक्ष्वाकु वंशमें उत्पन्न होनेवाले वे लोग क्षत्रिय कहे जाते हैं ॥२२८|| मषि, कृषि तथा वाणिज्य (व्यापार) ये तीन कर्म जिनकी लोक यात्राके निर्वाहके कारण हैं वे वैश्य कहे जाते हैं और कितनोंका कहना है कि–पशुओंका पालन करना भी वैश्योंका धर्म है ।।२२९।। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों वर्णकी व्रत मंत्र तथा विवाहादिसे गर्भाधानादि क्रियाएँ एक सी ही हैं और न इन तीनों वर्गों में पंक्ति भेद समझना चाहिये ॥२३०॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन वर्षों में कितने तो पशु पालनसे . अपना निर्वाह करते हैं, कितने कृषिकर्मसे तथा कितने शिल्प विद्यासे करते हैं और जो इन तीन वर्गों के मनुष्योंको वर्तन, भूषण तथा वस्त्रादिसे सेवा करते हैं उन्हें शूद्र समझना चाहिये ।।२३१।। उन शूद्रोंके सत्-शूद्र तथा असत्-शूद्र ऐसे दो विकल्प हैं। जिन शूद्रोंकी कन्याओंका एक ही बार विवाह होता है वे सत्-शूद्र हैं और जिनका पुनः पुनः विवाह होता है वे असत्-शूद्र हैं ॥२३२।। सत्-शूद्रोंके भी स्वाधीन तथा पराधीन ऐसे दो विकल्प हैं। जो दासी तथा दास हैं वे पराधीन सत्-शूद्र हैं और जो दासी दास न रहकर अपनी आजीविकाका निर्वाह स्वयं करते हैं उन्हें स्वाधीन सत्-शूद्र कहते हैं ।।२३३।। तथा असत्-शूद्रके भी-कारु तथा अकारु ऐसे दो भेद हैं। जो स्पर्श करने योग्य हैं उन्हें कारव असत्-शूद्र कहते हैं और जो अन्त्यज चाण्डालादि वे अस्पृश्यअकारव असत् शूद्र हैं ।।२३४॥ अस्पृश्य शूद्रोंका स्पर्श हो जानेसे मृत्तिकाके बर्तनोंको फिर काममें न लाकर उन्हें फेंक देना चाहिये । और लोहेका बर्तन यदि अस्पृश्य शूद्रोंसे छू जाय तो वह भस्म (राख) से मांजनेसे शुद्ध हो सकता है ।।२३५।। अस्पृश्य शूद्रोंसे भोजन किये हुए मृत्तिकाके बर्तन
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